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९. श्री जिनरंगसूरि शाखा आचार्य जिनराजसूरि (द्वितीय) के पश्चात् पुनः शाखा भेद हुआ। श्री जिनराजसूरि जी ने जिनरंगसूरि को युवराज पद पर स्थापित किया था तथा जिनरत्नसूरि जी को अंतिमावस्था में पाटण में अपने पट्ट पर स्थापित किया था, जिनरंगसूरि से यह शाखा पृथक् हो गई। १. जिनरंगसूरि
७. जिननन्दिवर्द्धनसूरि २. जिनचन्द्रसूरि
८. जिनजयशेखरसूरि ३. जिनविमलसूरि
९. जिनकल्याणसूरि ४. जिनललितसूरि
१०. जिनचन्द्रसूरि ५. जिनाक्षयसूरि
११. जिनरत्नसूरि ६. जिनचंद्रसूरि
१२. जिनविजयसेनसूरि
(१. श्री जिनरंग सूरि
आचार्य जिनराजसूरि के पाट पर आप बैठे। आपका जन्म सं० १६६४१ भाद्रपद सुदि ५ को डीडवाणा निवासी सिंघड़ गोत्रीय श्रीमाल साह सांकरसी की धर्मपत्नी सिन्दूरी की रत्नकुक्षि से हुआ। जन्म नाम रंगलाल था। आपके एक बहिन थी, जिसका नाम केशरी था। वि०सं० १६७८ में दोनों भाई बहिन ने फागुण वदि ७ को जैसलमेर में दीक्षा ग्रहण की। आपका नाम रंगविजय एवं बहिन का नाम कीर्तिविजया प्रसिद्ध किया गया। सं० १६८८ में आपको पाठक पद से अलंकृत किया गया। सं० १६९१ में जिनराजसूरि जी ने इन्हें युवराज पद पर बीकानेर में स्थापित किया। गुरु महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् सं० १७०१ ज्येष्ठ सुदि ५ को अजमेर में श्री गोविन्दसूरि जी ने संघ कृत महोत्सव पूर्वक आपकी पद स्थापना की। बाफणा गोत्रीय गौरा और नानालाल जी तथा कसाजीत मेहता ने इस महोत्सव में बारह हजार रुपये व्यय किए। मालपुरा पधार कर दादा जिनकुशलसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा छतरी में करवाई तथा तालाब के किनारे ऋषभदेव स्वामी के चरण एवं ऊपर की ओर चार-चरण हैं जो उपाध्याय रंगविजय जी के नाम से विख्यात हैं। उदयपुर के कटारिया मेहता भागचंद बच्छावत और मेहता रूपचंद के अतिशय आग्रह से उदयपुर पधारे वहाँ ८८ जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवायी। ___ इसके बाद पाठक श्रीसार, महिमासार, भुवनकीर्ति आदि मुनिपुङ्गवों के साथ दिल्ली पधारे। आपके अलौकिक गुणों से चमत्कृत होकर शाहंशाह औरंगजेब (? दाराशिकोह) ने शाही फरमान द्वारा युगप्रधान पद से अलंकृत किया। इस अवसर पर भांडिया गोत्रीय श्रीमाल राय निहालचंद आदि श्रेष्ठि १. सं० १६६९ भा०सु० १४ ।
२. राजलदेसर
३. गोरसी
(३०९)
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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