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मेघकुमार देवों की सान्निध्यता थी और मरुस्थल के अनेक भूत-प्रेतादि व्यंतर देवता नौकर की तरह हाजरी भरते थे, अतः किसी तरह के सन्ताप बिना प्रसन्नचित्त से धीरे-धीरे चलते हुए ईर्या समित्यादि पाँचों समितियों से अलंकृत पूज्यश्री पत्तन के राजमार्ग की तरह बड़ी प्रसन्नता से रेती के महासमुद्र को उल्लंघन करके सुखपूर्वक देवराजपुर पधारे । स्थानीय संघ समुदाय ने नाना वाजित्रों के बजते हुए, स्वर्ण-वस्त्रादि विविध प्रकार का दान देते हुए, नागरिक जनों के महान् समुदाय के साथ बड़े ठाठ से प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ पर सूरि महाराज ने स्वयं के कर कमलों से प्रतिष्ठित तीर्थ-स्वरूप श्री युगादि - देव को नमस्कार किया ।
१०७. वहाँ पर एक मास ठहर कर हमेशा धर्म-मर्म के ज्ञान रूपी दण्ड रत्न से विराजमान और व्याख्यान रूप सेना के अधिपति पूज्यश्री ने प्राणियों के हृदय रूपी किले में विराजमान मिथ्यात्व भूपति के कुवासना आदि सीमाल (आज्ञावर्त्ति ) राजाओं को दूर भगा कर, नाना विध अंगों से उत्पन्न हुई महाशक्ति वाले पूज्य महाराजाधिराज श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज दुर्जय मिथ्यात्व - भूपति का उन्मूलन करने के लिए उस (मिथ्यात्व ) की राजधानी रूप उच्चानगरी में पहुँचे। इसी उच्चानगरी में हिन्दू राजाओं के शासनकाल में बड़े-बड़े महान् वादी रूप हाथियों के समूह को भगाने में सिंह के बराबर सुगुरु चक्रवर्ती आचार्य श्री जिनकुशलसूरि महाराज पहले भी एक बार आये थे, उससे यह नगरी पवित्र हुई थी । महाराज के नगर प्रवेश के समय चारों वर्णों के सरकारी-गैर सरकारी हिन्दू-मुस्लिम हजारों मनुष्य स्वागत में आये थे । शुभागमन के अवसर पर अनेक धनी-मानी श्रावकों ने नाना प्रकार के गाजे-बाजे बजवाने के साथ गरीबों को अन्न-धन बाँटा । इस तरह बड़े ठाठ से नगर में प्रवेश करके सूरि महाराज ने चौबीसी पट के अलंकार - भूत श्री ऋषभदेव स्वामी को नमस्कार करके नि:शंक होकर वहाँ ठहरे और सब लोगों को दुःख देने वाले, प्रचण्ड बल वाले मिथ्यात्व रूपी राजा को अपने सर्वोत्तम धर्म-गुणों के सामर्थ्य से हटा कर महाराज ने अपने आश्रित विधिधर्म -राज की जड़ मजबूती से जमाई। इस प्रकार एक मास का समय बिता कर वर्षा काल की चातुर्मासी समीप आने पर अनेक श्रावकों के साथ फिर से देवराजपुर आकर युगादिदेव को नमस्कार किया । यह चातुर्मास वहीं पर किया ।
१०८. इसके बाद सं० १३८४ माघ सुदि पंचमी के दिन स्थैर्य, औदार्य, गाम्भीर्य आदि गुणों से अलंकृत, देव- गुरुओं की आज्ञा को सुवर्ण मुकुट की तरह मस्तक पर धारण करने वाले, जिन शासन की प्रभावना के निमित्त विविध मनोरंजक साधनों को जुटाने वाले, सेठ गोपाल के पुत्ररत्न सेठ नरपाल, सा० वयरसिंह, सा० नंदण, सा० मोखदेव, सा० लाखण, सा० आंबा, सा० कडुया, सा० हरिपाल, सा० वीकिल, सा० बाहड़ आदि उच्चापुरी के बड़े-बड़े महर्द्धिक श्रावकों की प्रार्थना से तथा देवराजपुर, कियासपुर, बहिरामपुर, मलिकपुर आदि नाना नगरों एवं ग्रामों के प्रमुख अग्रगण्य श्रावक लोग एवं राज्याधिकारियों के अत्यन्त अनुरोध से श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने देवराजपुर में ही प्रतिष्ठा, व्रत- ग्रहण, माला-ग्रहण आदि नन्दि महोत्सव बड़े विस्तार के साथ किया। इस महोत्सव के समय राणकोट और कियासपुर में स्थित विधि - चैत्य के लिए मूलनायक श्री युगादिदेव के दो प्रमुख बिम्ब
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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