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छोड़कर घरों के दरवाजे में, ऊपरी मंजिल में, छपरे व अगासी (छत) पर खूब जमा हो रहे थे। पूज्य श्री के अभूतपूर्व दर्शनों से आश्चर्यचकित होकर नगर निवासी समस्त नर-नारी कहने लगे-"अहो! इनका रूप-लावण्य विधाता की एक अनोखी रचना है। अहो! श्वेताम्बरों के बादशाह इन महाराज की शांतिप्रियता वर्णनातीत है। अहो! इन्द्रिय रूपी दुर्दमनीय घोड़ों को वश करने में इनकी चातुरी अपूर्व है। अहो! इनका शांत वेष सब मनुष्यों को आनन्द देने वाला है। इनके समान अन्य कोई तपस्वी नहीं है। इसलिए अनुयायी हजारों मनुष्य इनके गुण-ग्राम का वर्णन कर रहे हैं।" इस प्रकार हजारों अंगुलियाँ महाराज का परिचय दे रही थीं। "ये महाराज चिरकाल तक जीते रहें।" चारों
ओर से ऐसी आशीर्वाद परम्परा सुनाई दे रही थी। पूज्यश्री के पुण्य के प्रभाव से बड़े-बड़े घरों की स्वयं आई हुई मदमाती सुन्दर स्त्रियाँ काम-कुंभ के समान उत्तम मंगल कलश मस्तक पर धारण किये हुए उत्सव के आगे शोभा बढ़ा रही थीं। महाराज ने अपने प्रभाव के अतिशय रूपी फरसी से सभी विघ्न बेलड़ियों को छिन्न-भिन्न कर आनन्द उमंग के साथ नगर में प्रवेश किया। महाराज प्रतिवादीरूप हाथियों के लिए सिंह के समान थे। इसलिए दुष्ट भी शिष्ट बन गए और म्लेच्छों ने भी श्रावक वृन्द की भाँति पूज्यश्री के चरणारविन्दों में विधिपूर्वक वन्दना की। महाराज का यह नगर प्रवेश वैसा ही हुआ, जैसा कि इतिहास प्रसिद्ध चौहान महाराजा पृथ्वीराज के द्वारा अजमेर में जिनपतिसूरि महाराज का हुआ था। इस महोत्सव की सफलता को देखकर कई एक विघ्न से सन्तुष्ट होने वाले दुष्टों की मुखाकृति फीकी पड़ गई थी। वहाँ पर महाराज ने अपने हाथ से प्रतिष्ठित सर्वकामनाओं को पूर्ण
करने वाले श्री युगादिदेव भगवान् के पादारविन्दों में वन्दना की। क्यासपुर निवासी खरतर-समुदाय के विधि-मार्गोपदेशक, कोमल हृदय वाले कमलागच्छीय श्रावक भी ज्ञान, ध्यान, पवित्र चारित्र आदि सभी गुणों से सम्पन्न पूज्यश्री के अनन्य भक्त हो गए और इस खुशी के उपलक्ष में नाना प्रकार के पक्वानों, व्यंजनों व फलों से साधर्मी-बन्धुओं का उन्होंने अत्यधिक सत्कार किया एवं गरवे गाना, नाटक, खेल-तमाशे करना आदि कार्यों को करके शासन की महती प्रभावना की। महाराज ने भी कुतूहल वश आये हुए बड़े-बड़े यवन नेताओं को अपनी वचन चातुरी से आह्लादित कर उनके हृदय रूपी कन्दराओं में सम्यक्त्व बोध रूपी प्रकाश को पहुँचा कर मिथ्यात्व अंधकार को भगाया। सुश्रावक भविक-कमलों को सूर्य की किरणावली की तरह वचनावली से विकसित करने वाले तथा अनेक प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान करने वाले महाराज चौमासी पूर्णिमा के शुभ अवसर पर देवराजपुर पधारे। समस्त संघ समुदाय ने मिलकर प्रवेश महोत्सव करवाया। वहाँ पर महाराज ने युगादिदेव के मन्दिर में दर्शनार्थ पधार कर विधि से उनकी वन्दना की और वह चौमासा देवराजपुर में किया।
११२. इसके बाद सम्वत् १३८७ में सेठ नरपाल, साह हरिपाल, साह आँबा, साह लखण, साह वीकल आदि उच्चानगरी के श्रावक समुदाय के प्रबल आग्रह से १२ साधुओं को साथ लेकर महाराज उच्चानगरी पधारे। वहाँ पर एक मास तक ठहर कर पहले की तरह उनके तीर्थ-प्रभावना आदि कार्य किये और गुजरात के प्रधान नगर पाटण की तरह यहाँ भी अर्हत् धर्म का खूब विस्तार किया। इसके पश्चात् परशुरोर कोट के निवासी सेठ हरिपाल, साह रूपा, साह आशा, सा० सामल आदि मुख्य
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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