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युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि -
युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि जी चतुर्थ दादा गुरुदेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनका जन्म खेतसर गाँव में रीहड़ गोत्रीय ओसवाल श्रेष्ठी श्रीवन्त शाह की धर्मपत्नी श्रिया देवी की कोख से सं० १५९५ चैत्र कृष्णा १२ के दिन हुआ। माता-पिता ने आपका गुणनिष्पन्न "सुलतानकुमार" नाम रखा जो आगे चल कर जैन समाज के सुलतान-सम्राट हुए। बाल्यकाल में ही अनेक कलाओं के पारगामी हो गए, विशेषतः पूर्व-जन्म-संस्कार-वश आपका धर्म की ओर झुकाव अत्यधिक था। सं० १६०४ में खरतरगच्छ-नायक श्री जिनमाणिक्यसूरि जी महाराज के पधारने पर उनके उपदेशों का आप पर बड़ा असर हुआ और आपकी वैराग्य भावना से माता-पिता को दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान करने को विवश होना पड़ा। नौ वर्ष की आयु वाले सुलतानकुमार ने बड़े ही उल्लासपूर्वक संयम मार्ग स्वीकार किया। गुरु महाराज ने आपका नाम "सुमतिधीर" रखा। प्रतिभा सम्पन्न और विलक्षण बुद्धिशाली होने से आप अल्पकाल में ही ग्यारह अंग आदि सकल शास्त्रों का अभ्यास कर वाद-विवाद, व्याख्यान-कलादि में पारगामी होकर गुरु महाराज के साथ देश-विदेश में विचरण करने लगे।
__उस समय जैन साधुओं में आचार-शैथिल्य का प्रवेश हो चुका था जिसका परिहार कर क्रियोद्धार करने की भावना सभी गच्छनायकों में उत्पन्न हुई। श्री जिनमाणिक्यसूरि जी महाराज भी दादा साहब श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के स्वर्गवास से पवित्र तीर्थ रूप देरावर की यात्रा एवं गच्छ में फैले हुए शिथिलाचार को समूल नष्ट करने का संकल्प कर यहाँ पधारने और वहीं से लौटते हुए जैसलमेर के मार्ग में पिपासा-परिषह उत्पन्न होने पर अनशन स्वीकार कर स्वर्गवासी होने का वर्णन आगे आ चुका है। तत्पश्चात् जब उनके २४ शिष्य जैसलमेर पधारे तो गुरुभक्त रावल मालदेव ने स्वयं आचार्य पदोत्सव की तैयारियाँ की और तत्र विराजित खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा के प्रभावक आचार्य श्री गुणप्रभसूरि जी महाराज से बड़े समारोह के साथ मिति भाद्रपद शुक्ला ९ गुरुवार के दिन सत्रह वर्ष की आयु वाले श्री सुमतिधीर जी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करवाया। गच्छ मर्यादानुसार आपका नाम श्री जिनचन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुआ। उसी रात्रि में गुरु महाराज श्री जिनमाणिक्यसूरि जी ने दर्शन देकर समवसरण पुस्तिका स्थित साम्नाय सूरिमन्त्र कल्प विधि निर्देश पत्र की ओर संकेत किया। इसी वर्ष कार्तिक सुदि ४ को आपने श्री जिनमाणिक्यसूरि के चरणों की प्रतिष्ठा की जो पार्श्वनाथ जिनालय, जैसलमेर में है।
चातुर्मास पूर्ण कर आप श्री बीकानेर पधारे। मंत्रीश्वर संग्रामसिंह बच्छावत की प्रबल प्रार्थना थी, अतः संघ के उपाश्रय में जहाँ तीन सौ यतिगण विद्यमान थे, चातुर्मास न कर सूरिजी मंत्रीश्वर की अश्वशाला में ही रहे। उनका युवक हृदय वैराग्य रस से ओत-प्रोत था। उन्होंने गहन चिन्तन-मनन के पश्चात् क्रान्ति के मूल मंत्र क्रियोद्धार की भावना को कार्यान्वित करना निश्चित किया। मंत्रीश्वर संग्रामसिंह का इस कार्य में पूर्ण सहयोग था। सूरि महाराज ने यतिजनों को आज्ञा दी कि जिन्हें शुद्ध साधु-मार्ग
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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