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इनके समय में उकेशवंशीय ब्रह्मदेव ने श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति की प्रतिलिपि करायी थी। (जैन. पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० ८४-८५) इसकी लेखन प्रशस्ति में ब्रह्मदेव के पूर्वज और उनकी वंश-परम्परा का विस्तार से वर्णन किया गया है।
उकेशवंशीय श्रावक खेतू द्वारा लिखित अभयकुमारचरित्रादि पुस्तक पंचक प्रति की लेखन प्रशस्ति के अनुसार वीरदेव के पौत्र पार्श्व के पुत्र मानदेव हुए। मानदेव के पुत्र यशोवर्धन जिनपतिसूरि की सदा उपासना करते थे। साधु खिम्बड़ की पुत्री सुन्दरी ने जिनेश्वरसूरि से दीक्षा ग्रहण की थी। साधु लालण की पुत्री आम्बश्री (आम्बी) ने बीजापुर में पद्मप्रभ जिनालय का निर्माण कराया । आम्बी ने जिनप्रबोधसूरि के पास व्रत भी ग्रहण किया था। साधु लालण ने जावालिपुर में १२ देवकुलिकाओं पर सुवर्णकलश और ध्वजा स्थापित करायी थी। बीजापुर में वासुपूज्य विधिचैत्य में भी इन्होंने देवकुलिका-निर्माण कराया था। जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' के आदेश से वासुपूज्य जिनालय में कुलचन्द्र ने देवकुलिका का १३२८ में निर्माण कराया था। वि०सं० १३२८ चैत्र ११ को बीजापुर में कुलचन्द्र ने २४ मातृकाओं की प्रतिष्ठा करायी थी। इस प्रशस्ति की रचना जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्रीकुमारगणि ने की थी। इस प्रशस्ति में मानदेव की विशालवंश परम्परा और उनके द्वारा किये गये सत्कृत्यों का विशद् वर्णन है। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० ८८-९१)
___ सं० १२९५ में लिखी गयी कर्मविपाक टीका की लेखन प्रशस्ति के अनुसार वि०सं० १२९५ में नलकच्छ के महाराजाधिराज जयतुगीदेवकल्याणविजय के शासनकाल में महाप्रधान धर्मदेव के कार्यकाल में चित्रकूट निवासी उकेशवंशीय आशापुत्र जिनवल्लभसूरि संतानीय श्री जिनेश्वरसूरि के चरणोपासक थे। शत्रुजय, उज्जयन्त आदि तीर्थों की यात्रा कर सुगुरु के उपदेश से समस्त जैन शास्त्रोद्धार का प्रतिलेखन कराते हुए सल्हाक ने स्वभ्रातृ देदा के साथ यह पुस्तिका लिखवायी। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० १२०)
क्षमाकल्याणोपाध्यायकृतपट्टावली में उल्लेख मिलता है कि अणहिल्लपत्तन में राजा कुमारपाल ने हेमचन्द्राचार्य से निवेदन किया कि, हे स्वामिन् यदि आप मुझे स्वर्णसिद्धि का उपाय बतलायें तो मैं सारे विश्व को ऋणरहित कर विक्रमादित्य की तरह नवीन संवत्सर का प्रवर्तन करूँ। आचार्य हेमचन्द्र ने उत्तर दिया कि आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्यों द्वारा लायी गयी बौद्ध पुस्तक में स्वर्णसिद्धि का उपाय है। वह पुस्तक खरतरगच्छ वालों के पास इस समय है। कुमारपाल ने अपने आदमियों (भृत्यों) को जिनेश्वरसूरि के पास भेजकर उस पुस्तक की उनसे माँग की। जिनेश्वरसूरि ने चित्रकूट के चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय के स्तम्भ से पुस्तक निकलवाकर उन्हें सौंप दी और यह संदेश भी दिया कि इस पुस्तक को नहीं खोलें और न ही पढ़ें, अपितु ग्रन्थभंडार में स्थापित कर दें। हेमचन्द्र के आदेश पर कुमारपाल ने पुस्तक को नहीं खोला किन्तु हेमचन्द्रसूरि की साध्वी बहन हेमश्री ने दुराग्रहवश पुस्तक को खोला और वह तत्काल ही अंधी हो गयी। ऐसा भयंकर प्रसंग देखकर राजा ने भयभीत होकर तत्काल ही वह पुस्तक भंडार में रखवा दी। उसी रात्रि अग्निकाण्ड में वह भंडार जलकर नष्ट हो गया, वह पुस्तक भी
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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