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लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसात् कीर्तिस्तमालिङ्गति, प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धमुत्कण्ठया। स्वःश्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते,
यः संघ गुणसंघके लिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥ [जो कल्याणाभिलाषी मनुष्य अनेक गुण समुदाय के क्रीडाधर तुल्य संघ की तन, मन, धन से सेवा करता है उसके पास लक्ष्मी स्वयं चली आती है। कीर्ति शीघ्रता से उस पुरुष का आलिंगन करती है। सब कोई उससे प्रेम करने लगते हैं। बुद्धि बेचारी बड़े चाव से उस पुरुष को पाने की कोशिश करती है। स्वर्गीय लक्ष्मी उस पुरुष से आलिंगन करना चाहती है और मुक्ति बारंबार उसको देखा करती है-उसकी प्रतीक्षा करती रहती है।]
इत्यादि पूर्वाचार्य रचित शास्त्र-वाक्यों से विदित होता है कि श्रीसंघ तीर्थंकरों को भी मान्य है, तो फिर हम जैसों की तो बात ही क्या? इस प्रकार आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने मन में विचार कर आसन्नवर्ती चातुर्मास की भी अपेक्षा न करके और श्रीसंघ का प्रबल आग्रह जानकर ज्येष्ठ सुदि षष्ठी के दिन शुभ मुहूर्त में अपने गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज का ध्यान धरते हुए मानों कलिराज को जीतने के लिए और अपना कार्य सिद्ध करने के लिए गाजे-बाजे के साथ, बड़े ठाठबाट से सारे दल-बल को लेकर तीर्थयात्रा को चले। इस यात्रा में महाराज के साथ सेवा करने के लिए अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे सत्रह साधु और जयर्द्धि महत्तरा, पुण्यसुन्दरी गणिनी आदि उन्नीस साध्वियाँ थीं। इस यात्रा में चतुर्विध संघ सेना थी और सेठ रयपति जी सेनानायक थे तथा सेठ राजसिंह सेनानायक के पृष्ठरक्षक थे। साह महणसिंह, साह जवणपाल, साह भोजा, साह काला, ठक्कुर फेरु, ठ० देपाल, श्रेष्ठी गोपाल, साधुराज तेजपाल, सा० हरिपाल, सा० मोहण, सा० गोसल आदि अनेकों महर्द्धिक श्रावक लोग इस सेना में महारथी प्रबल योद्धा थे। इनके साथ पाँच सौ गाड़े, सैकड़ों घोडे तथा तथा अगणित बाजे थे। घोड़ों पर कसे हुए नगारे, ढोल, मारु बाजे बजाये जा रहे थे। खान-पान के लिए बेरोक-टोक भोजनालय खोल दिया गया था। चलती हुई संघ सेना की धूलि से आकाश में अंधेरा छा रहा था। शीघ्र ही दीक्षा लेने वाले क्षुल्लकों को हमेशा उत्तम भोजन व बहुमूल्य वस्त्र दिये जा रहे थे। मार्ग में आने वाले प्रत्येक नगर व ग्राम में हिन्दू, मुसलमान आदि सभी जाति के लोग श्रीसंघ व संघपति का बड़ा ही आदर-सम्मान करते थे। श्रीसंघ ने शंखेश्वर नामक नगर में पहुँचकर, श्री पार्श्वनाथ भगवान् को नमस्कार कर ध्वजारोपणादि कार्यों से धर्म प्रभावना करके आगे का मार्ग लिया। क्रम से दण्डकारण्य के समान वालाक प्रान्त को पार करके समग्र संघ सहित पूज्यश्री समस्त अधिष्ठायक देवों के प्रभाव व तमाम मुस्लिम नवाबों की सहायता से बिना किसी विघ्न-बाधा के शत्रुजय पहाड़ की तलहटी में पहुंचे।
वहाँ पर श्री पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन करके आषाढ़ वदि ६ के दिन सकल तीर्थों में प्रधान, सर्वातिशयों के निधान, श्री शत्रुजय पर्वत के अलंकारभूत श्री ऋषभदेव भगवान् को संघ सहित पूज्यश्री
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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