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प्रद्युम्नाचार्य ने काफी देर तक अपनी गल-गर्जना करके पूज्यश्री से प्रश्न किया-आचार्य! अनायतन किस सिद्धान्त में कहा है? जो आप व्यर्थ ही भोले-भाले लोगों को इस प्रकार बहका रहे हैं।
पूज्यश्री ने जवाब दिया- दशवैकालिक, ओघनियुक्ति, पंचकल्प, व्यवहार आदि सिद्धान्त ग्रंथों में अनायतन विषयक विवेचन ठीक तौर से किया गया है।
प्रद्युम्नाचार्य बोले-भगवन् ! गाढ़ अभ्यास के कारण सम्पूर्ण ओघनियुक्ति मुझे अपने नाम की तरह अनुभूत है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उसमें अनायतन सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है।
जवाब में पूज्यश्री ने कहा-आचार्य! अन्य सिद्धान्तों को दूर रहने दीजिए, यदि हम किसी तरह ओघनियुक्ति से सिद्ध कर आपको यह मान्य करा दें कि देवगृह और जिनप्रतिमा अनायतन होती है, तब तो आप हमारी जीत हुई मानोगे?
उत्तर में प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-हाँ! यह बात हमें स्वीकार है। परन्तु आज तो देर बहुत हो गई है, वार्तालाप का समय कल प्रात:काल का निश्चित रखिये।
पूज्यश्री ने कहा-क्या हर्ज है ऐसा ही सही।
प्रद्युम्नाचार्य हाथ से हाथ मिलाये हुए सेठ क्षेमंधर को साथ लेकर अपनी पौषधशाला में चले गए। वहाँ पर सेठ रासल के पिता सेठ धणेश्वर ने सेठ क्षेमंधर को सुनाते हुए जिनपतिसूरि जी के पैर में फोड़े पर बंधी हुई पाटी को लक्ष्य कर व्यंग्य वचन कहा-"आपके गुरुजी के पैर में बंधे हुए चीर-कटक (कपड़े के टुकड़े) का प्रमाण कल सुबह मालूम होगा।"
इस बात को सुनकर क्रोधवश लाल नेत्र होकर सेठ क्षेमंधर ने कहा-रे लम्पट ! तेरे बडवाओं (पूर्वजों) से तो कही अधिक मान पूज्यश्री के पैर में बंधे हुए चीर-कटक का है।
इस तू-तू मैं-मैं को शान्त करते हुए प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-तुच्छ कारण को लेकर आप लोगों का कलह करना अच्छा नहीं है। प्रात:काल सब के लिए अच्छा होगा और सभी के मान-प्रमाण माने जायेंगे। इसके बाद प्रद्युम्नाचार्य को वन्दना करके क्षेमंधर सेठ पूज्यश्री के पास आ गये वहाँ पर
यदपसरति मेषः कारणं तत् प्रहर्तु, मृगपतिरपि कोपात् संकुचत्युत्पतिष्णुः। हृदयनिहितवैरा गूढमन्त्रोपचाराः, किमपि विगणयन्तो बुद्धिमन्तः सहन्ते॥
[जिसके हृदय-मंदिर में विद्वेषाग्नि धधक रही हो, जिसकी गुप्त मन्त्रणा दुर्जेय हो, ऐसे बुद्धिमान लोग अनुकूल समय की प्रतीक्षा में शत्रुओं से किये जाने वाले किसी भी दुर्व्यवहार को कोई चीज नहीं गिनते हुए चुप-चाप सहन कर लेते हैं। जैसे कि-लड़ाई में मेढ़े का पीछे की ओर हटना हार का चिह्न नहीं है, किन्तु जोर से टक्कर देने के लिये है। सिंह का सिकुड़ना-कमजोरी एवं भीरुता का चिह्न नहीं है, किन्तु वह अपने शिकार पर ऊँची छलांग मारने के लिए सिकुड़ता है।]
धीर पुरुषों की भी यही नीति है। वे प्रथम ही प्रथम दुश्मन के साथ नम्रता से पेश आयेंगे। बाद में अपने पराक्रम का परिचय देंगे। प्रद्युम्नाचार्य के साथ चर्चा को प्रारंभ करते हुए, पूज्यश्री ने भी इसी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
(१०१) Jain Education International 2010_04
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