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"हमारे पद पर सोमचन्द्र गणि को स्थापित करना; उसे देवभद्राचार्य ने सफल किया है।" तदनन्तर श्री देवभद्राचार्य ने आचार्य जिनदत्तसूरि से प्रार्थना की-"आप कुछ समय तक पाटण सिवाय अन्य प्रदेशों में विचरण करें।" यह सुनकर जिनदत्तसूरि ने कहा-"बहुत अच्छा, ऐसा ही करेंगे।"
३१. एक समय जिनशेखर नामक साधु ने कलह आदि कुछ अनुचित कार्य किया, इसलिए देवभद्राचार्य ने उसे समुदाय से बाहर निकाल दिया। जब जिनदत्तसूरि जी बहिर्भूमिका के लिए बाहर गये तो उनकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ जिनशेखर मार्ग में ही महाराज के पैरों में आ गिरा और बड़ी दीनता के साथ कहने लगा-"महाराज! मेरे से यह भूल हो गई। आप एक बार क्षमा करें। आगे से इस प्रकार की उदण्डता कभी नहीं करूँगा।" दया के समुद्र श्री जिनदत्तसूरि जी ने भी कृपा करके उसे समुदाय में ले लिया। देवभद्राचार्य को यह मालूम होने पर उन्होंने आचार्य श्री से कहा-"इसको समुदाय में लेकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया। यह आपको कभी भी सुखावह न होगा।" यह सुन कर आचार्य श्री ने कहा-"यह सदा से ही स्वर्गीय आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि जी की सेवा में रहा है, इसको कैसे निकाला जाय? जब तक निभेगा तब तक निभायेंगे।" तत्पश्चात् देवभद्राचार्य जी अन्यत्र विहार कर गये।
३२. आचार्यश्री जिनदत्तसूरि जी ने "किस तरफ विहार करना चाहिए?" इसके निर्णयार्थ देवगुरुओं के स्मरण निमित्त तीन उपवास किए। उनके ध्यान बल से आकृष्ट होकर श्री हरिसिंहाचाय देवलोक से आये और बोले-"हमको स्मरण करने का क्या कारण है?" जिनदत्तसूरि जी ने कहा"मुझे किस तरफ विहार करना चाहिए? यह निर्णय प्राप्त करने के लिये मैंने आपको स्मरण किया है।" "मारवाड़ आदि की तरफ विहार करो।" ऐसा उपदेश देकर हरिसिंहाचार्य अदृश्य हो गये। देवयोग से उन्हीं दिनों मारवाड़ के रहने वाले मेहर, भाखर, वोसल, भरत आदि श्रावक व्यापारवाणिज्य के लिए वहाँ आये हुए थे। वे लोग गुरु श्री जिनदत्तसूरि जी के दर्शन करके तथा उनका प्रवचन सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और उनको सदा के लिए अपना गुरु बनाया। उनमें भरत तो शास्त्रज्ञान के लिये वहीं रह गया और बाकी सब अपने-अपने घर जाकर कुटुम्बियों के सम्मुख गुरुजी के गुण-वर्णन करने लगे। इस प्रकार मारवाड़ में महाराज की प्रशंसा का सूत्रपात हो गया। वहाँ से विहार करके पूज्य श्री नागपुर पहुंचे। नागपुर के श्रावकों में मुख्य सेठ धनदेव महाराज की खूब सेवा भक्ति करता रहा। किसी दिन वह महाराज से कहने लगा कि-"महाराज! यदि आप मेरे वचन के अनुसार करें तो सब के पूज्य बन सकते हैं।" गुरु महाराज ने कहा-"कैसे?" धनदेव ने कहा"यदि आप अपने व्याख्यान में "आयतन-अनायतन" का झगड़ा छोड़ दें तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि सभी श्रावक आपके आज्ञाकारी बन जायँ।" उसका कथन सुनकर सूरि जी बोले"धनदेव! शास्त्रों में लिखा है-"श्रावक गुरु वचनानुसार चलें, किन्तु यह कहीं भी देखने में नहीं आया कि गुरु श्रावकों की आज्ञा का पालन करे (उत्सूत्र भाषण महान् दोष है)। यदि तुम कहते हो कि "अधिक परिवार के अभाव में हमारी मान-पूजा नहीं होगी" तो तुम्हारा यह कथन भी ठीक नहीं है। मुनिवरों ने कहा है :
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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