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वहीं पर बागड़ देश में एक जयदत्त नाम का चैत्यवासी मुनि बड़ा मंत्रवादी था। उसके पूर्वज मंत्र विद्या में विख्यात थे, परन्तु वे पूर्वज क्रुद्ध हुई देवी से नष्ट कर दिये गए थे। केवल यह एक बचा था। यह वहाँ से भागा और जिनदत्तसूरि जी की शरण में आकर दीक्षित हो गया। सूरि जी ने दुष्ट देवता से इसकी रक्षा की।
गुणचन्द्र गणि को भी सूरि जी ने यहीं बागड़ में दीक्षा दी। इनको जब ये श्रावक अवस्था में थे, तुर्क लोग पकड़ कर ले गये थे। इनका हाथ देखकर तुर्कों ने सोचा कि अपना भण्डारी अच्छा होगा। अतः यह कहीं भाग न जाए इस कारण से इनको जंजीर से जकड़ दिया गया था। परन्तु इन्होंने कैद की कोठरी में पड़े-पड़े नमस्कार मंत्र का एक लक्ष जाप किया। उस जाप के प्रभाव से सायंकाल जंजीर अपने आप छिन्न-भिन्न हो गई। वहाँ से निकल कर वे ढ़लती रात में एक दयालु बुढ़िया के घर में छिप कर रहे। बुढ़िया ने दया करके इनको अपनी धान्य कोठी में छिपा लिया था। तुर्कों ने इधर-उधर इनकी खूब खोज की, परन्तु ये मिले नहीं। रात में वहाँ से निकल कर जैसे-तैसे अपने घर आये। इस घटना से वैराग्य उत्पन्न होने से इन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। रामचन्द्र गणि अपने पुत्र के साथ अन्य गच्छ की अपेक्षा उत्तम साधन जानकर सूरि का आज्ञाकारी बना। इसी प्रकार ब्रह्मचंद्र गणि ने भी इनसे व्रत ग्रहण किया।
श्री जिनदत्तसूरि जी के पास जब साधु-साध्वियों का विशाल समुदाय हो गया, तो इन्होंने उनके सहयोगियों को चुन-चुन कर वृत्ति-पंजिका आदि टीका ग्रन्थ पढ़ने के लिये धारा नगरी में भेजा। उनमें जिनरक्षित, शीलभद्र, स्थिरचन्द्र, वरदत्त आदि साधु और श्रीमति, जिनमति, पूर्णश्री आदि साध्वियों के नाम विशेषतया उल्लेखनीय हैं। वहाँ पर इन्होंने श्रावक महानुभावों की सहायता से विद्याभ्यास किया।
__ वहाँ से जिनदत्तसूरि जी महाराज ने रुद्रपल्ली की तरफ विहार किया। रास्ते के एक गाँव में एक श्रावक प्रतिदिन जबरदस्त व्यन्तर देव से सताया जाता था। वह गाँव मार्ग में आ गया। उस व्यन्तर पीड़ित श्रावक के पुण्य से महाराज वहीं ठहर गये। उस श्रावक ने महाराज के पास जाकर अपनी शरीर की अवस्था बताई। महाराज समझ गये कि इसके शरीर में जो व्यन्तर है वह बड़ा भयानक है और मंत्र-तंत्रों से साध्य नहीं है। महाराज ने गणधरसप्ततिका की रचना करके टिप्पण में लिखकर उसके हाथ में दिया और कहा-"तुम अपनी दृष्टि और मन इसमें स्थिर रखो।" ऐसा करने से वह व्यन्तर पहले दिन बीमार की शय्या तक पहुँचा, दूसरे दिन गृह द्वार तक और तीसरे दिन आया ही नहीं। वह पीड़ित श्रावक एकदम स्वस्थ हो गया। वहाँ से चलकर महाराज रुद्रपल्ली पहुंचे। जिनशेखरोपाध्याय जी वहाँ पहले से थे ही। महाराज का आगमन सुनकर स्थानीय श्रावक वृन्द को साथ लेकर वे उनके सम्मुख आये। बड़े आरोह-समारोह तथा गाजे-बाजे के साथ पूज्य श्री का नगर में प्रवेश कराया गया। रुद्रपल्ली के एक सौ बीस श्रावक कुटुम्बों को जिन धर्म में स्थिर किया तथा पार्श्वनाथ स्वामी और ऋषभदेव स्वामी के दो मन्दिरों की सूरि जी ने प्रतिष्ठा की। कई श्रावकों ने
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संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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