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पण्डितों ने कहा-आप धैर्य धारण कीजिए, हम जानते हैं।
राजपण्डितों ने कहा-आचार्यप्रवर! आप कृपा करके गद्यबद्ध शैली में पृथ्वीराज के सभामण्डप का वर्णन करें। पूज्यश्री मन ही मन सभा वर्णन की वर्णना करके खड़िया से जमीन पर लिखने लगे। जैसे
"चञ्चन्मेचकमणिनिचयरुचिररचनारचितकुट्टिमोच्चरन्मरीचिप्रपञ्चखचितदिक् चक्रवालम्, सौरभभरसम्भूतलोभवशबम्भ्रम्यमाणझङ्कारभृतभुवनभवनाभ्यन्तरभूरिभ्रमरसम्भृतविकीर्णकुसुमसम्भारविभ्राजमानप्राङ्गणम्, महानीलश्यामलनीलपट्टचेलोल्लसदुल्लोचाञ्चललम्बमानानिलविलोलबहलविमलमुक्ताफलमालातुलितजलपटलाविरलविगलदुज्ज्वलसलिलधारम्, दिग्विक्षिप्तवलक्षचक्षुः कटाक्षलक्षविक्षेपक्षोभितकामुकपक्षामुक्तमौक्तिकाद्यनर्घपञ्चवर्णनूतनरत्नालङ्कारविसरनिः सरकिरणनिकुरुम्बचुम्बिताम्बरारब्धनिरालम्बनविचित्रकर्मप्रविशत्कुसुमायुधराजधानी-विलासवारविलासिनीजनम्, क्वचिच्चूतांकुररसास्वादमदकलकण्ठकलरवसमाननवगानगानकलाकुशलगायनजनप्रारब्धललितकाकलीगेयम्, क्वचिच्छुचिचरित्रचारुवचनरचनाचातुरीचञ्चुनीतिशास्त्रविचारविचक्षणसचिवचक्रचर्च्यमाणाचारानाचारविभागम्, क्वचिदासीनोद्दामप्रतिवाद्यमन्दमदभिदुरोद्यदनवद्यहृद्यसमग्रविद्यासुन्दरीचुम्ब्यमानावदातवदनारविन्दकोविदवृन्दारकवृन्दम्, उद्धतकन्धरविविधमागधदर्ण्यमानोद्धरधैर्यशौर्यौदार्यवर्धिष्णु, मुधाधामदीधितिसाधारणयशोराशिधवलितवसुन्धराभोगनिविशमानसामन्तचक्रम्, प्रसरन्नानामणिकिरणनिकरविरचितवासवशरासनसिंहासनासी नदोर्दण्ह चण्डिमाडम्बरखण्डिताखण्डवैरिभूमण्डलनमन्मण्डलेश्वरपटलस्पर्धोद्भटकिरीटतटकोटिसंकटविघटित-विसंकटपादविष्टरभूपालम्, अपि चोद्यानमिव पुन्नागालंकृतं श्रीफलोपशोभितं च, महाकविकाव्यमिव वर्णनीयवर्णाकीर्णं व्यञ्जितरसं च, सरोवरमिव राजहसावतंसं पद्मोपशोभितं च, पुरन्दरपुरमिव सत्या(?)धिष्ठितं विबुधकुलसंकुलं च, गगनतलमिव लसन्मङ्गलं कविराजितं च, कान्तावदनमिव सदलङ्कारं विचित्रचित्रञ्च ।"
- [राजा पृथ्वीराज का सभा भवन कैसा सुन्दर है। चमकती हुई सुन्दर मणिओं से उसकी भीत और आँगन बनाया गया है। उन्हीं मणियों की रुचिर रचना से रचित फर्श से निकलने वाली किरणों से इसके चारों ओर की दिशाएँ जगमगा रही हैं। जिसकी सुगन्ध के लोभ से आगत भ्रमरों के गर्जन से सारे ही सभा-भवन का मध्य भाग भर गया है, ऐसे फूलों के गुच्छे सभा मण्डप के आँगन में बिखरे हुए हैं। इस सभा में उत्तम नील मणि के समान नीले रंग के रेशमी वस्त्र का चन्दुआ तना हुआ है। उसके चारों ओर लगी हुई और हवा से हिलती हुई चंचल मुक्तामालाएँ ऐसी मालूम होती हैं मानो किसी जलाशय के चारों ओर निर्मल जल धारा टपकती हों। जिसमें कामदेव की राजधानी के उपयुक्त सुन्दरी-वेश्यायें विद्यमान हैं, उनके सुन्दर कटाक्षों से कामीजनों का हृदय क्षुभित हो रहा है। वेश्याओं के धारण किये गए मोती आदि अनेक वर्ण वाले महामूल्य रत्नजटित आभूषणों से विस्फुरित फैली हुई रंग-बिरंगी किरणों के समूह से निरालंब ही आकाश में विचित्र चित्रकारी सी हो रही है। सभा भवन में किसी स्थान पर आम की मंजरी खाने से मस्त हुई कोयल के कलरव के समान नूतन संगीत कला में निपुण कलावंत गंधर्व लोगों से काकली स्वर में सुन्दर गान किया जा रहा
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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