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किसी से विवाद करना उचित नहीं माना है, परन्तु यदि कोई अभिमानी पंडित अपना सामर्थ्य दिखलाता है और जिनशासन की अवहेलना करता हुआ हमें व्यर्थ ही खिन्न करता है तो, हम पीछे नहीं हटते हैं। जैसे-तैसे उसका मान-मर्दन करके ही हमें शान्ति मिलती है।"
राजा ने पूज्यश्री की तरफ इशारा करते हुए कहा कि-"क्या ये ठीक कहते हैं?"
पूज्यश्री ने कहा-"बिल्कुल ठीक कहते हैं?'' फिर उपाध्याय जी बोले-"ज्ञान की अधिकता से हमारे गुरु समर्थ ही हैं, परन्तु धार्मिक मर्यादा के अनुसार ज्ञान का अभिमान नहीं करते हुये भी अपनी शक्ति से धर्म में बाधा देने वाले प्रतिवादी को सब लोगों के सामने घमंड के पहाड़ से नीचे उतार सकते हैं।" फिर राजा ने पूछा-"आचार्य जी! आपके ये पण्डित जी क्या कहते हैं?" पूज्यश्री ने कहा
ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः।
अमृतं यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते॥१॥ [ज्ञान, अभिमान और मोह को दूर करता है, जो मनुष्य ज्ञान को पाकर भी घमंड करे, उसका वैद्य कोई नहीं है। जिसको अमृत भी जहर लगे, उस पुरुष की चिकित्सा किस प्रकार की जाय? अर्थात् विद्या का पहला फल विनय प्राप्ति है।]
इस प्रकार अनेक प्रकार के सदुपदेशों से राजा का हृदय आवर्जित हो गया। राजा ने कहा"आचार्यवर! अब देर क्यों करते हैं? हमारे नगर में प्रवेश करने के लिए काफी समय लगेगा।" अधिक क्या कहें, राजा तथा श्रावकों का अनुरोध मान कर महाराज आशिका को गये। भूपति भीमसिंह जी व चतुर्विध संघ के साथ पूर्वोक्त दिल्ली प्रदेश की तरह आशिका में प्रवेश किया।
४६. वहाँ पर रहते हुए किसी दिन अपने बहुत से अनुयायी साधुओं के साथ महाराज बहिर्भूमिका के लिए जा रहे थे। उस समय सामने से आते हुए महा प्रामाणिक दिगम्बराचार्य नगर द्वार के पास मिल गये। महाराज ने सुखशाता प्रश्न के बहाने उसके साथ वार्तालाप शुरु किया। उसी प्रसंग में सज्जनता के विवेचन के लिए श्लोकों की व्याख्या चल पड़ी। किसी पद की व्याख्या में मतभेद होने के कारण विवाद जरा कुछ अधिक बढ़ गया। उस प्रसंग को सुनने के लिए उत्सुक कतिपय नागरिक पुरुष एवं राजकीय पुरुष भी वहाँ उपस्थित हो गये। पूज्यश्री की सिंह गर्जनवत् स्फूर्ति एवं प्रमाण सहित युक्ति तथा तर्कों को देख सुन कर सभी लोग कहने लगे-"छोटे से श्वेताम्बराचार्य ने पण्डितराज दिगम्बराचार्य को जीत लिया।"
वहाँ पर उपस्थित मंत्री दीदा, कक्करिउ, काला आदि राजकीय कर्मचारियों ने राजसभा में जाकर राजा भीमसिंह के समक्ष कहा-राजाधिराज! आप उस दिन जिन आचार्य के सम्मुख गए थे, उन अल्पवयस्क आचार्य ने स्थानीय दिगम्बराचार्य को जीत लिया।
राजा सुनकर बहुत प्रफुल्लित हुआ और बोला-क्या यह बात सत्य है?
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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