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(i) आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य और अभयदेवसूरि के सतीर्थ्य जिनचन्द्रसूरि ने वि०सं० ११२५ में रचित संवेगरंगशाला की पुष्पिका में लिखा है कि अपने शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य की प्रार्थना पर गुणचन्द्र गणि (देवभद्रसूरि)और जिनवल्लभ गणि ने इस ग्रन्थ को संशोधित किया। इससे स्पष्ट है कि यदि जिनवल्लभसूरि चैत्यवास त्याग कर अभयदेव के शिष्य न बने होते तो प्रसन्नचन्द्रसूरि, हरिभद्रसूरि, वर्धमानसूरि जैसे समर्थ विद्वानों की उपस्थिति में जिनचन्द्रसूरि एक चैत्यवासी मुनि से किस प्रकार अपने ग्रन्थ का संशोधन कराते?
(ii) जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण किये वगैर देवभद्रसूरि द्वारा उन्हें अभयदेवसूरि के पट्ट पर बैठाना असम्भव था।
(iii) सूक्ष्मार्थ-विचार-सारोद्धार (सार्धशतक) प्रकरण पर बृहद्गच्छीय धनेश्वरसूरि ने वि०सं० ११७१ में टीका की रचना की। इसके १५२ वें पद्य की टीका में वे स्वयं लिखते हैं कि सार्धशतक के प्रणेता नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य थे। इससे भी स्पष्ट है कि अभयदेवसूरि ने इन्हें उपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित कर दिया था।
(iv) धर्मसागर जी के पूर्वज तपागच्छीय हेमहंससूरि ने कल्पान्तर्वाच्य में लिखा है कि नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि हुए जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की।
(v) उपसंपदा का अर्थ है "उपसम्पत् इतो भवदीयोऽमित्यभ्युपगमः अर्थात् अब मैं आपका हूँ।" इस प्रकार की स्वीकृति देना ही उपसम्पदा कहलाती है। जिनवल्लभ स्वरचित चित्रकूटीय महावीर चैत्य-प्रशस्ति में स्वयं को कूर्चपुरगच्छीय आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य बतलाते हुए अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा और श्रुतसम्पदा प्राप्त करने का उल्लेख करते हैं
लोकाय॑कूर्चपुरगच्छमहाघनोत्थ - मुक्ताफलोज्ज्वलजिनेश्वरसूरिशिष्यः ।
प्राप्तः प्रथां भुवि गणिर्जिनवल्लभोऽत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च | जिनवल्लभ स्वयं स्वरचित प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक में मेरे सद्गुरु अभयदेवसूरि हैं, ऐसा कहते हैं।
पाके धातुरवाचि कः? क्क भयतो भीरो मनः प्रीयते? सालङ्कारविदग्धया वद कया रज्यन्ति विद्वज्जनाः? पाणौ किं मुरजिबिभर्ति? भुवि तं ध्यायन्ति का के सदा? के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुता विश्रुताः?
श्रीमद्भयदेवाचार्याः जिनवल्लभसूरि के पट्टधर युगप्रधान जिनदत्तसूरिजी लिखते हैं कि कूर्चपूरीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि ने चैत्यवास का परित्याग कर अभयदेवसूरि के पास श्रुतसम्पदा प्राप्त की और देवभद्रसूरि ने चित्तौड़ में अभयदेवसूरि के पद पर इनको स्थापित किया। इतोऽप्यभयदेवाख्य-सूरेः श्रीश्रुतसम्पदां। समवाप्य ततो मत्वा, चैत्यवासोऽस्ति पापकृत् ॥ १॥ श्रीमत्कूर्चपुरीय-श्रीसूरेजिनेश्वरस्य शिष्येण। जिनवल्लभेनगणिना, चैत्यवासः परित्यक्तः ॥ २ ॥
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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