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का कुछ भी अनिष्ट करने में समर्थ न हो सके, क्योंकि पाटण में रहते हुए ही महाराज की प्रसिद्धि को सब जनता सुन ही चुकी थी। वहाँ जाकर महाराज ने अपने ठहरने के लिए वहाँ के लोगों से स्थान माँगा। उन्होंने किसी स्थान का प्रबन्ध कर देने के बजाय हँसीपूर्वक कहा-"यहाँ एक सूना चण्डिका का मन्दिर है यदि आप उसमें ठहरें तो।" महाराज ने उनके कुटिल अभिप्राय का ज्ञान कर लिया कि "टूटेफूटे और सूने मठ में भूत-प्रेत पिशाचों की शंका होती है। इसी से ऐसा स्थान मेरे अनिष्ट की बुद्धि से ये लोग बतला रहे हैं। परन्तु कोई चिन्ताजनक बात नहीं है। देव-गुरु की कृपा से सब शुभ ही होगा।" ऐसा सोचकर जिनवल्लभ गणि ने कहा-"भले वही सही, तुम आज्ञा दो जिससे वहाँ ठहरें।" लोगों ने कहा-"भले वहाँ ठहरो।" तदनन्तर गणि जी देव-गुरु का ध्यान करने के साथ देवी की अनुज्ञा ले करके उनके निर्दिष्ट स्थान पर ही गये। उस स्थान की अधिष्ठात्री देवी चण्डिका महाराज के ज्ञान, ध्यान और सदनुष्ठान से प्रसन्न हो गई। जिस चण्डिका का लोगों को बड़ा भारी भय था और जिससे कई लोगों का अनिष्ट भी हो चुका था, वही चण्डिका आज इन गणि जी के तप प्रभाव को देखकर, जो अन्यों के लिए भक्षिका थी, इनकी रक्षिका हो गई। महाराजश्री के इस आश्चर्यकारक अपूर्व प्रभाव को देखकर सब लोग चकित हो गए। गणिजी साधारण व्यक्ति नहीं थे। ये सब विद्याओं के पारदर्शी विद्वान् थे। शास्त्र ज्ञान के भण्डार थे। अनेक सिद्धान्तों के ज्ञाता थे। जिनेन्द्र मत प्रचारक श्री हरिभद्रसूरि के अनेकान्तजयपताका आदि ग्रन्थों के अभिज्ञ थे। परदर्शनियों के न्यायकन्दली, किरणावली आदि न्याय ग्रन्थ तथा पाणिनी आदि आठों वैयाकरणों के सूत्र और अर्थ इनको कण्ठस्थ थे। चौरासी नाटक, सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र, पंच महाकाव्य आदि सभी काव्य ग्रंथ तथा जयदेव प्रभृति कवियों द्वारा रचित छन्द ग्रन्थों
१. सोलहवीं शताब्दी के समर्थ कवि श्रीमान् क्षेमराज मुनि अपने स्वोपज्ञ उपदेशसप्ततिका टीका में लिखते हैं
कि-गणिवर जी अपने शिष्य परिवार सह चित्तौड़ पधारे, वहाँ के जैन गृहस्थों से उतरने योग्य स्थान की याचना की, वे सभी लोग प्रायः चैत्यवासियों के भक्त थे, अतः द्वेष बुद्धि से चण्डिका देवी का मन्दिर बता दिया। वह देवी अत्यन्त चण्ड स्वभावी होने के कारण उसके मन्दिर में जो कोई रात में ठहरता उसे वह मार ही डालती। गणिजी तो अपने भाग्य के भरोसे पर अटल श्रद्धा रखते हए देवगुरु का स्मरण करके वहाँ के
की अनुमति लेकर और देवी से अवग्रह की याचना करके निश्चिन्त होकर वहाँ गये। समयानुसार प्रतिक्रमणादि क्रियानंतर स्वाध्यायादि करने पूर्वक संथारापोरसी पढ़कर सो गये। आपके भाग्यबल व चारित्रविशुद्धि के प्रभाव से यद्यपि देवी ने आपको कोई उपद्रव नहीं किया। फिर भी आपका एक बाल शिष्य अर्द्धरात्रि को लघुशंका निवारण निमित्त उठा, उस समय बाल स्वभाव के सहज स्वभाव से कुतूहल वश देवी की आँखें उखाड़ दीं। उससे कुपित हुई देवी ने उस बाल शिष्य की दोनों आँखें खींच निकाली। उसकी पीड़ा से वह बाल शिष्य एकदम रोने लगा, अतः गुरुजी उठे और शिष्य से सारी हकीकत जानी। तुरन्त ही अपने ध्यान बल से देवी को बुलाया और कहा कि-"अरे चण्ड स्वभावि देवी चण्डिका! बिना आँखों के इस शिष्य की दशा क्या होगी? इसने बाल स्वभाव सुलभ कुतूहल वश तेरी मूर्ति की आँखें उखाड़ दीं तो यह इसकी अज्ञान दशा है, उसके लिए क्षमा कर और इसकी आँखें जल्दी अच्छी कर दे। गुरु महाराज की इस आज्ञा को अंगीकार कर देवी ने अपनी दैवी शक्ति से तुरन्त ही शिष्य की दोनों आँखें कमल पत्र के जैसी स्वच्छ बना दी। उनके इस विशिष्ट आचार के प्रभाव व उपदेश से ऐसी दष्ट देवी भी शान्त हो गई।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास ।
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