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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १२
कषाय के भेद
आवेगों की अवस्थाएँ भी तीव्रता की दृष्टि से समान नहीं होती हैं, अतः तीव्र आवेगों को कषाय और मंद आवेगों या तीव्र आवेगों के प्रेरकों को नोकषाय (उप-कषाय) कहा गया है। कषायें चार हैं- १. क्रोध, २. मान, ३. माया और ४. लोभ। आवेगात्मक अभिव्यक्तियों की तीव्रता के आधार पर इनमें से प्रत्येक को चार-चार भागों में बाँटा गया है- १. तीव्रतम, २. तीव्रतर, ३. तीव्र ; और ४. मंद। आध्यात्मिक दृष्टि से तीव्रतम क्रोध आदि व्यक्ति के सम्यक् दृष्टिकोण या विवेक में विकार ला देते हैं। तीव्रतर क्रोध आदि आत्म-नियन्त्रण की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। तीव्र क्रोध आदि आत्म-नियन्त्रण की शक्ति के उच्चतम विकास में बाधक होते हैं। मंद क्रोध आदि व्यक्ति को पूर्ण वीतराग नहीं होने देते। चारों कषायों की तीव्रता के आधार पर चार-चार भेद हैं। अतः कषायों की संख्या १६ हो जाती है। निम्न नो उप-आवेग, उप-कषाय या कषाय-प्रेरक माने गये हैं- १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. शोक, ५. भय, ६. घृणा, ७. स्त्रीवेद (पुरुष-सम्पर्क की वासना), ८. पुरुषवेद (स्त्री-सम्पर्क की वासना); और ९. नपुंसकवेद (दोनों के सम्पर्क की वासना)। इस प्रकार कुल २५ कषायें हैं। २ क्रोध
यह एक मानसिक किन्तु उत्तेजक आवेग है। उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है। उसकी विचार-क्षमता और तर्क-शक्ति लगभग शिथिल हो जाती है। भावात्मक स्थिति में बढ़े हुए आवेग की वृत्ति युयुत्सा को जन्म देती है। युयुत्सा से अमर्ष और अमर्ष से आक्रमण का भाव उत्पन्न होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार क्रोध और भय में यही मुख्य अन्तर है कि क्रोध के आवेग में आक्रमण का और भय के आवेग में आत्म-रक्षा का प्रयत्न होता है।
जैन-दर्शन में सामान्यतया क्रोध के दो रूप मान्य हैं- १. द्रव्य-क्रोध और २. भाव-क्रोध।' द्रव्य-क्रोध को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध का
आंगिक पक्ष कहा जा सकता है, जिसके कारण क्रोध में होनेवाले शारीरिक परिवर्तन होते हैं। भावक्रोध क्रोध की मानसिक अवस्था है। क्रोध का अनुभूत्यात्मक पक्ष भाव-क्रोध है, जबकि क्रोध का अभिव्यक्त्यात्मक या १. तुम अनन्तशक्ति के स्रोत हो, पृ. ४७ २. अभिधानराजेन्द्र कोश, खण्ड ३, पृ. ३९५ ३. भगवतीसूत्र, १२/५/२
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