Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूपणा
गा० २२ ] तिरिक्ख अपज्जत्तभंगो ।
अणुक्क० णत्थि
उक०
४८. देवगदी देवे मिच्छ: बारसक० नवणोक० उक्क० अंतरं । सम्म० - सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एस ०, एकत्ती सागरोवमाणि देणाणि । अनंताणु० चक० उक० णत्थि अंतरं । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं साग० देसूणाणि । एवं भवणादि जात्र उवरिमवज्जा त्ति । वरि सगद्विदीओ भाणिदव्वाओ । अणुदिसादि जाव सव्वद्वसिद्धि ति अट्ठावीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्कस्स० पत्थि अंतरं । एवं दव्वं जाब अणाहारिति । में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । विशेषार्थ —यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समय में होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है । सम्यक्त्वादि छह प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यों के समान है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि एक तो इनकी भी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । दूसरे इनमें अनन्तानुबन्धचतुष्कका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होता है, इसलिए पञ्च न्द्रिय तिर्यों के समान यहाँ भी अन्तरकाल बन जाता है। चार संज्वलन आदिकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्षपकश्श्रेणिमें एक समयके लिए और चूर्णिसूत्र के अनुसार स्त्रीवेदको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भोगभूमि में पल्य असंख्यातवें भागप्रमाण काल जाने पर प्राप्त होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल सम्भव नहीं है यह स्पष्ट ही है । मनुष्यपर्यात और मनुष्यिनियोंमें अन्तरकालप्ररूपणा सामान्य मनुष्योंके समान बन जाती है, इसलिए इनमें उनके समान जाननेकी सूचना की है। तथा स्वामित्व और कार्यस्थिति आदि की अपेक्षा पन्द्रिय तिर्य अपर्याप्तकोंसे मनुष्य अपर्याप्तकों में कोई अन्तर नहीं है, इसलिए यहाँ मनुष्य पर्यातकों में पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है ।
$ ४८. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवों में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि कुछ कम इकतीस सागरके स्थान में कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिए । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक्के देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
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तो
विशेषार्थ — देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है । अब रहा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका विचार सो देवों में मिध्यात्व आदि बाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना
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