Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ ४०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ उवसामिदा विदियाए उवसामणाए आषाहा जम्हि पुण्णा सा हिदी आदिडा, तम्हि उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । ६७२. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-एक्कण जीवेण कसाए उवसामिता पडिवदिदण पुणो अंतोमुहुत्तेण कसाया उवसामिदा । सो च जीवो संखेनंतोमुहत्तब्भहियसोलसवस्मृणमधाणिसेयकालं पुव्वविहाणेण रएसु संचयं कादूण तदो उवहिदो। दो-तिण्णिभवरगहणाणि तिरिक्खेसु गमिय मणुस्सेसु आगदो त्ति घेतव्वं, अण्णहा उक्कस्ससंचयाणुप्पत्तीदो। विदियाए उवसामणाए आबाहा जम्हि पुग्णा सा हिदी आदिडा एवं भणिदे जम्मि उद्दे से सामित्तभवसंबधिविदियवारकसायउवसामणाए वावदस्स तप्पाओग्गजहणिया आबाहा पुण्णा सा हिंदी पुव्वमेव आदिवा विवक्खिया ति वुत्तं होइ। ६६७३. एत्थ गेरइएसु चेव मिच्छत्तादिकम्माणं व पयदुक्कस्ससामित्तमदादूण उवसमसेढिं चढाविय सामित्तविहाणे लाहपदंसणहमिमा ताव परूवणा कीरदे। तं जहा--संखेज्जतोमुहुत्तब्भहियसोलसवस्सेहि परिहीणं जहाणिसेयकालं पुत्वविहाणेण सत्तमपुढविणेरइएसु तदाउअचरिमभागे अधाणिसेयकालभंतरे संचयं करिय कालं काऊण दो-तिण्णिभवग्गहणाणि तिरिक्वेसु गमिय मणुस्सेसुववज्जिय गब्भादिअहवस्साणमंतोमुहुत्तभहियाणमुवरि संजमेण सह पढमसम्मत्तमुप्पाइय पुणो वेदयसम्माअन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा कषायका उपशम किया। इस प्रकार इस दूसरी उपशामनाके होनेपर अबाधा जहाँ पूर्ण होती है प्रकृतमें वह स्थिति विवक्षित है। उसके उदयको प्राप्त होनेपर उससे युक्त जीव उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है। ६६७२. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीव है जो कषायका उपशम करके उससे च्युत हुआ । फिर भी उसने अन्तमुहूर्त काल में कषायका उपशम किया। वह जीव पहले संख्यात अन्तर्मुहूर्त अधिक सोलह वर्ष कम यथानिषेकके कालतक पूर्वविधिसे नारकियोंमें सञ्चय करके वहाँसे निकला और दो तीन भव तिर्यञ्चोंके लेकर मनुष्यों में आया ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकता है। विदियाए उवसामणाए आबाहा जम्हि पुण्णा सा हिदी आदिट्ठा' सूत्रमें जो यह कहा है सो इसका यह आशय है कि स्वामित्वसम्बन्धी भवमें दूसरी बार कषायकी उपशामनाके जिस स्थानमें रहते हुये तत्प्रायोग्य जघन्य आबाधा पूर्ण होती है वह स्थिति पूर्व में ही विवक्षित थी। ६७३. अब प्रकृतमें नारकियोंमें ही मिथ्यात्व आदि कर्मों के समान प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व न देकर जो उपशमश्रेणिपर चढ़ाकर स्वामित्वका विधान किया है सो इसमें लाभ है यह दिखलानेके लिये यह आगेकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-कोई एक जीव है जिसने संख्यात अन्तर्मुहूर्त अधिक सोलह वर्षसे हीन यथानिषेकका जितना काल है उतने काल तक सातवीं पृथिवीका नारकी रहते हुए अपनी आयुके अन्तिम भागमें यथानिषेकके कालके भीतर पूर्वविधिसे यथानिषेकका संचय किया फिर मरा और तिर्यंचोंके दो तीन भव लेकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त हो जानेपर संयमके साथ प्रथमोपशम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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