Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 459
________________ wwwwwwwwwwww ४३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पडिवण्णस्स सामित्तुद्देसपदुप्पायणमुवरिमो मुत्तावयवो-तप्पाओग्गुकस्सियमिच्छत्तस्स जावदिया आवाहा इच्चादि । ७०८, एत्थ वेछावट्ठीणमंते उकस्ससंकिलेसमावूरिय मिच्छत्तं गदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स सामित्तमपरूविय पुणो वि अंतोमुहुत्तं गंतूण तप्पाओग्गुकस्साबोहाचरिमसमयमिच्छाइडिम्मि कदमं लाहमुद्दिसिय जहण्णसामित्तविहाणं कीरइ त्ति णासंकणिज्नं, तप्पाओग्गउकस्ससंकिलेसमावरिय मिच्छत्तस्स तप्पाओग्गुकस्सहिदि बंधमाणेणाबाहान्भंतरावहिदाहियारहिदिपदेसाणमोकड्डुक्कड्डणाहिं जहण्णीकरणेण लाहदसणादो पढमसमयउदयगदगोवुच्छादो तप्पाओग्गुकस्साबाहचरिमसमयगोवुच्छस्स चडिददाणमेत्तगोवुच्छविसेसेहि परिहीणतदंसणादो च । ण एत्थ णवकबंधसंचयस्स संभवो, आबाहाबाहिरे तस्सावडाणादो । स्वामित्वविषयक स्थानके दिखलानेके लिए 'तप्पाओग्गुकस्सियमिच्छत्तस्स जावदिया आबाहा' इत्यादि आगेका शेष सूत्र आया है। ७०८. यहाँ पर यदि कोई ऐसी आशंका करे कि दो छयासठ सागरके अन्तमें उत्कृष्ट संक्लेशको पूरा करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुए प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके स्वामित्वका कथन न करके फिर भी अन्तर्मुहूर्त जाकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अबाधाके अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके जो जघन्य स्वामित्वका विधान किया है सो इसमें क्या लाभ है सो उसकी ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा करनेसे दो लाभ दिखाई देते हैं। प्रथम तो यह कि तत्प्रायोग्य संक्लेशको पूरा करके मिथ्यात्वकी तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके आबाधाके भीतर प्राप्त हुई अधिकृत स्थितिके कर्मपरमाणु अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जघन्य कर दिये जाते हैं और दूसरे प्रथम समयमें उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छासे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अबाधाके अन्तिम समयमें जो गोपुच्छा है उसमें जितने स्थान ऊपर जाकर वह स्थित है उतने गोपुच्छविशेषोंकी हानि देखी जाती है। इसप्रकार इन दो लाभोंको देखकर मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्वका विधान न करके उत्कृष्ट अबाधाके अन्तिम समयमें उसका विधान किया है। यदि कहा जाय कि यहाँ नवकबन्धका सञ्चय हो जायगा सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि इसका अवस्थान अबाधाके बाहर पाया जाता है। विशेषार्थ यहाँ मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्तके जघन्य स्वामित्वका निर्देश किया है। इसकी प्रथम विशेषता यह बतलाई है कि सर्वप्रथम ऐसे जीवको एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मके साथ त्रसोंमें उत्पन्न कराना चाहिये । टीकामें इस विशेषताका खुलासा करते हुए जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि बसोंमें उत्पन्न होनेवाला यह जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला ही हो ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है किन्तु इस कथनको उपलक्षण मानकर इससे ऐसा जीव भी लिया जा सकता है जिसका मिथ्यात्व स्थितिसत्कर्म एकेद्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मसे एक समय अधिक हो, दो समय अधिक हो। इस प्रकार उत्तरोत्तर स्थिति बढ़ाते हुए जिसका स्थितिसत्कर्म साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण हो वह जीव भी यहाँ लिया जा सकता है। इसका कारण यह बतलाया है कि जब प्रकृत जघन्य स्वामित्व साधिक दो छयासठ सागरके बाद ही प्राप्त होता है तो इतने स्थितिसत्कर्मवाले जीवको ग्रहण करनेमें कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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