Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 477
________________ ४५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ कुदो ? पुव्वपरूविदभागहारे संते पुणो वि ओकड्डणमस्सियूणुप्पण्णवेछावहिसागरोवमभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्ताणं अण्णोण्णब्भत्थरासीए असंखेज्जलोगपमाणाए भागहारतेण पवेसदसणादो। तदो एदम्मि हेहिमरासिणा ओवट्टिदे तप्पाओग्गासंखेज्जरूवमेत्तो गुणगारो आगच्छदि त्ति घेत्तव्वं । ® एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-पुरिसवेद हस्स-रइ-भयदुगुंछाणं। ७४३. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णओ अप्पाबहुगआलावो को तहा सम्मत्तादिपयडीणं पि अणणाहिमो कायव्यो, विसेसाभावादो। गवरि सामित्ताणुसारेण गुणयारविसेसो जाणियव्यो । * अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवं जहएणयमग्गहिदिपत्तयं । ६ ७४४. सुगमं । * जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयमणंतगुणं । $ ७४५. एत्थ वि कारणं सुगमं । 8 जहएणयं णिसेयहिदिपत्तयं विसेसाहियं । क्योंकि पूर्वोक्त भागहारके रहते हुए फिर भी अपकर्षणकी अपेक्षा दो छयासठ सागरके भीतर उत्पन्न हुई पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण नाना गुणहानिशलाकाओंकी असंख्यात लोकप्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशिका भागहाररूपसे प्रवेश देखा जाता है। फिर इसे नीचेकी राशिसे भाजित करनेपर तत्प्रायोग्य असंख्यात अङ्कप्रमाण गुणकार आता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। ___* इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह काषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका भी जघन्य अल्पबहुत्व कहना चाहिए । ७४३. जिस प्रकार मिथ्यात्वके जघन्य अल्पबहुत्वका कथन किया है न्यूनाधिकताके बिना उसी प्रकार सम्यक्त्व आदि प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्वके कथनसे इनके कथम में कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सबकी अपेक्षा गुणकार एकसा नहीं है इसलिए अपने अपने स्वामीके अनुसार गुणकार जानना चाहिये। * अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य सबसे थोड़ा है। ६७४४. इस सूत्रका अर्थ सुगम है। * उससे जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य अनन्तगुणा है । ६ ७४५. यहां जो जघन्य अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यसे जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यको अनन्तगुणा बतलाया है सो इसका कारण सुगम है। * उससे जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य विशेष अधिक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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