Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 460
________________ मा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ४३३ ७०६, एत्य संचयाणुगमे भण्णमाणे एदमधाणिसेयहिदिपत्तयजहण्णदव्वं केत्तियमेत्तकालसंचिदमिदि उत्ते अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचिदमिदि घेत्तव्वं । तं जहाथावरकायादोणिग्गंतग असण्णिपंचिंदिरसुववन्जिय अंतोमुत्तकालं सागरोवमसहस्समेति मिच्छत्तहिदि बंधमाणो जहाणिसेयहिदिसंचयं काऊण पुणो देवेसुववज्जिय तत्थ वि अपज्जतकालं सचमतोकोडाकोडिमेत्तहिदिवधेण संचयं करिय पुणो वि जाव सम्मत्तगहणपाओग्गो होइ ताव संचयं करेइ ति । एवमंतोमुहुत्तसंचओ लब्भइ । उवरि सम्मत्तगुणमाहप्पेण मिच्छत्तस्स बधवोच्छेदादो पत्थि संचओ। एदं च अंतोमुहुत्तपमाणसमयपबद्धपडिबद्धदव्वं सम्मत्तेण वेछावहिसागरोवमाणि परिब्भममाणस्स संखेजस्वम्भहियआवलियछेदणयमेत्तगुणहाणीओ उवरिं चडिदस्स संखेज्जावलियमेत्तसमयपबद्धपमाणं णस्सियूणेगसमयपबद्धपमाणेणावचिहइ। पुणो एवं पि समय आपत्ति नहीं है, क्योंकि उक्त स्थानको प्राप्त होनेके पूर्व ही यह स्थितिसत्कर्म गल जायगा। इसके बाद सम्यक्त्व उत्पन्न कराकर दो छयासठ सागर कालतक यथाविधि इस जीवको सम्यक्त्वके साथ रखा है सो इसके दो फायदे बतलाये हैं। प्रथम तो यह कि इसके मिथ्यात्वका न्यूतन बन्ध नहीं होता और दूसरा यह कि यह जीव एकेन्द्रिय पर्यायके शेष रहे सञ्चयको तो गलाता ही है साथ ही साथ एकेन्द्रिय पर्यायके बाद त्रस पर्यायमें आनेपर जो सम्यक्त्वको प्राप्त करके पूर्वतक मिथ्यात्वका न्यूतन बन्ध हुआ है उसे भी यथाशक्य निर्जीर्ण करता है। इसके बाद इसे मिथ्यात्वमें ले जाकर मिथ्यात्वका वहाँ के योग्य उत्कृष्ट बन्ध करावे और आबाधाके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व दे। मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें यह जघन्य स्वामित्व न बतलाकर जो आबाधाके अन्तिम समयमें बतलाया है सो इसके दो कारण बतलाये | प्रथम तो यह कि मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर जितने स्थान ऊपर जाकर आबाधाका अन्तिम समय प्राप्त होता है उतने चयोंकी उसमें हानि देखी जाती है और दूसरा यह कि अपकर्षण उत्कर्षणके द्वारा भी उसका द्रव्य कम हो जाता है। इस प्रकार इन दो लाभोंको देखकर आबाधाके अन्तिम समयमें ही जघन्य स्वामित्व दिया है। ६७०६. यहाँ पर सञ्चयानुगमका विचार करनेपर यह यथानिषेकस्थितिप्राप्त जघन्य द्रव्य कितने कालमें संचित होता है ऐसा पूछनेपर अन्तर्मुहूर्त कालमें सञ्चित होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । खुलासा इस प्रकार है--स्थावरकाय पर्यायसे निकलकर असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूत कालतक एक हजार सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधत्ता हुआ यथानिषेकस्थितिका संचय करता है। फिर देवोंमें उत्पन्न होकर वहाँ भी अपर्याप्त कालतक अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण स्थितिबन्ध करके संचय करता है। फिर भी पर्याप्त होनेपर जबतक यह जीव सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है तबतक सञ्चय करता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक होनेवाला सञ्चय प्राप्त हो जाता है । इसके आगे सम्यक्त्वगुणकी प्रधानतासे मिथ्यात्वकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिये सञ्चय नहीं प्राप्त होता। अब यह जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयप्रबद्धोंका द्रव्य है सो इसमेंसे सम्यक्त्वके साथ दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करनेवाले और संख्यात अङ्क अधिक एक आवलिके अर्धच्छेदप्रमाण गुणहानियाँ ऊपर चढ़े हुए जीवके संख्यात श्रावलिप्रमाण समयप्रबद्धोंका नाश होकर एक समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य शेष रहता है। फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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