Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 462
________________ ४३५ गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ___ ७११. संपहि एदेणेव गयत्थं सम्मत्तस्स वि जहाणिसेयहिदिपत्त यजहण्णसामित्तं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जेण मिच्छत्तस्स रचिदो अधाणिसेओ तस्स चेव जीवस्स सम्मत्तस्स अधाणिसेो कायव्वो। णवरि तिस्से उक्कस्सियाए सम्मत्तद्धाए चरिमसमए तस्स चरिमसमयसम्माइहिस्स जहणणयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । ७१२. जेण जीवेण मिच्छत्तस्स जहण्णओ जहाणिसेश्रो पुव्वुत्तविहाणेण विरइओ तस्सेव जीवस्स सम्मत्तस्स वि जहण्णओ जहाणिसेओ कायव्यो । णवरि तिस्से उक्कस्सियाए वेछावहिसागरोवमपमाणाए सम्मत्तद्धाए चरिमसमए वट्टमाणस्स तस्स चरिमसमयसम्माइहिस्स पयदजहण्णसामित्तं कायव्वं, अण्णहा तबिहाणोवायाभावादो। तं जहा—पुव्यविहाणेणागंतूण पढमलावहिं भमिय पुणो विदियछावडीए अंतोमुहुत्तावसेसे दंसणमोहक्खवणमभुहिय अहियारहिदिदव्वं गुणसेढिणिज्जराए णासेमाणो उदयावलियबाहिरहिदमिच्छत्तचरिमफालिदव्वं सव्वं समहिदीए सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकामिय पुणो तेणेन विहिणा सम्मामिच्छत्तचरिमफालिदव्वं पि सव्वं सम्मत्तस्सुवरि संकामेदि । एवं तिण्हं पि जहाणिसेयहिदीओ एकदो कादूण पुणो ६७११. अब सम्यक्त्वके यथानिषेक स्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामित्व भी इसीसे गतार्थ है यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * जिसने मिथ्यात्वका यथानिषेकपाप्त द्रव्य किया है उसी जीवके सम्यक्त्वके यथानिषेकका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमें उस सम्यग्दृष्टिके रहनेपर वह अपने अन्तिम समयमें यथानिषेकस्थितिप्राप्त जघन्य द्रव्यका स्वामी है । ६७१२. जिस जीवने मिथ्यात्वका जघन्य यथानिक द्रव्य पूर्वोक्तविधिसे प्राप्त किया है उसी जीवके सम्यक्त्वके जघन्य यथानिषेकद्रव्यका भी कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जो दो छयासठ सागरप्रमाण सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल है उसके अन्तिम समयमें विद्यमान हुए उस सम्यग्दृष्टि जीवके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान करना चाहिये, अन्यथा प्रकृत जघन्य स्वामित्वके विधान करनेका और कोई उपाय नहीं है। खुलासा इस प्रकार है-कोई एक जीव है जिसने पूर्वोक्त विधिसे आकर प्रथम छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण किया। फिर दूसरे छयासठ सागरमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत होकर वह अधिकृत स्थितिके द्रव्यका गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा नाश करने लगा और ऐसा करते हुए वह उदयावलिके बाहर स्थित हुए मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके सब द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वकी समान स्थिति में संक्रमित करके फिर उसी विधिसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके सब द्रव्यको भी सम्यक्त्वके ऊपर संक्रमित करता है। इस प्रकार तीनों ही कर्मोकी यथानिषेक स्थितियोंको एकत्रित करके फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें उन तीनों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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