Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ® मिच्छत्तस्स जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयं कस्स ? ७०५. सुगमं ।
जो एइंदियहिदिसंतकम्मेण जहएणएण तसेसुआगदो। अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवएणो। वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालियूण मिच्छत्तं गदो । तप्पाओग्गउक्कसिया मिच्छत्तस्स जावदिया आवाहा तावदिमसमय मिच्छाइहिस्स तस्स जहएणयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
७०६. एदस्स सुत्तस्सत्यो वुच्चदे । तं जहा—जो एइंदियहिदिसंतकम्मेणं जहण्णएणे त्ति उत्ते एइंदिएसु हिदिसंतकम्मं हदसमुप्पत्तियं काऊण पलिदोवमासंखेजभागूणसागरोवममेत्तसव्वजहण्णेइंदियहिदिसतकम्मेण सह गदो ति घेतव्वं । गुणिदकम्मंसियलक्खणेण तविवरीयकम्मसियलक्षणेण वा आगमणेण ण एत्थ पयोजणमत्थि । किंतु एइंदियसवजहण्णहिदिसतकम्ममेवेत्थोवजोगी, तत्थतणपदेसथोवबहुत्तेण पोजणाभावादो ति भावत्यो । कुदो पओजणाभावो ? उवरि दूरद्धाणं गंतूण वेछावहिसागरोवमावसाणे पयदसामित्तविहाणुद्दे से हेहिमसंचयस्स जहाणिसेयसरूवेणासंभवादो । एइंदियहिदिसतकम्मं पुण तत्थुद्दे से तदभावीकरणेण पयदोव
* मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ? ६७०५. यह सूत्र सुगम है।
* एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ बसोंमें उत्पन्न होकर जिसने अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया है। फिर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन करके जो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है। फिर वहाँ तत्मायोग्य मिथ्यात्वकी जितनी उत्कृष्ट आषाधा हो उतने काल तक जो मिथ्यात्वके साथ रहा है वह मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है।
६७०६. अब इस सत्रका अर्थ कहते हैं। जो इसप्रकार है-सूत्रमें जो 'जो एइदियट्ठिदि संतकम्मेण जहण्णएण' यह पद कहा है सो इससे यह अर्थ लेना चाहिये कि एकेन्द्रियोंमें स्थितिसत्कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके जो जीव एकेन्द्रियका सबसे जघन्य स्थितिसत्कर्म जो पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम एक सागर बतलाया है उसके साथ त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है। यहॉपर गुणितकमांशकी विधिसे या क्षपितकांशकी विधिसे आनेसे कोई प्रयोजन नहीं है किन्तु एकेन्द्रियका सबसे जघन्य स्थितिसत्कर्म ही यहाँ उपयोगी है, क्योंकि ऐसे जीवके कर्मा परमाणु थोड़े हैं या बहुत इससे प्रकृतमें प्रयोजन नहीं है यह उक्त कथनका भावार्थ है।
शंका-प्रकृतमें कर्मपरमाणुओंके अल्पबहुत्वसे क्यों प्रयोजन नहीं है ?
समाधान—क्योंकि ऊपर बहुत दूर जाकर दो छयासठ सागर कालके अन्तमें जहाँ प्रकृत स्वामित्वका विधान किया है वहाँ इतने नीचे के संचयका यथानिषेकरूपसे पाया जाना सम्भव नहीं है। किन्तु उस स्थानमें जाकर एकेन्द्रियके यथानिषेस्थितिप्राप्त द्रव्यका अभाव कर देनेसे
१ श्रा. प्रतौ एइंदियट्ठिदिपत्तयं इति पाठः ।
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