Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४१७ करण-सुहुमसांपराइय-उवसंतकसायंकालसव्वसमासादो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सवावारेणावहिदकालादो च मोहणीयस्स अणियट्टिजहणिया आवाहा संखेज्जगुणा, तस्सेव मोहणीयस्स अपुव्वकरणम्मि उक्कस्सिया आबाहा संखेज्जगुणा, अणियट्टिम्मि मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति उवसमसेढीए अप्पाबहुअं भणिहिदि । एदेण णवदि जहा चढमाणअपुव्वाबाहादो अंतोमुहुत्तब्भहियं होऊण द्विदमहियारगोवुच्छं पुव्वं चढमाणोदरमाणाणमाबाहाम्भंतरमपविसियूणागमणं लहइ त्ति । एदं च सव्वं मणेणावहारिय विदियाए उवसामणाए आबाहा जम्हि पुण्णा सा हिंदी आदिहा ति सुत्तयारेण परूविदं ।
६६८१. एत्य विदियाए ति उत्ते विदियभवग्गहणसंबंधिणो दो वि कसाउवसामणवारा घेप्पंति, तेसिं जाइदुवारेणेयत्तावलंबणादो सुत्तस्स अंतदीवयभावेण पयट्टत्तादो वा। संपहि पुव्वं परूविदासंखेज्जवस्सहिदिवधियस्स पढमणिसेयं लद्धणाबाहान्भंतरे पविसिय अणियट्टिअद्धाए सखेज्जे भागे अपुवकरणं च वोलेयूण पुणो कमेण पमत्तापमत्तट्ठाणे अहियारगोवुच्छाए उदयमागच्छमाणे कोहसजलणस्स उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तय होइ । एदं च हियए करिय तम्हि उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयमिदि वुत्तं । तम्मि हिदिविसेसे उदयपत्ते पयदुक्कस्ससामित्तं होइ ति
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साम्पराय और उपशान्तमोह इन सब कालोंका जितना जोड़ हो उससे तथा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रमत्त और अप्रमत्तके हजारों परिवर्तनोंमें लगनेवाले अवस्थितकालसे मोहनीयकमंकी अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी जघन्य अबाधा संख्यातगुणी होती है। इससे उसी मोहनीयकी अपूर्वकरणमें उत्कृष्ट अबाधा संख्यातगुणी होती है। इससे अनिवृत्तिकरणमें मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है। इसप्रकार आगे चलकर उपशमश्रेणिमें अल्पबहुत्व कहेंगे। इससे जाना जाता है कि जो अधिकृत गोपुच्छा चढ़ते समय प्राप्त हुए अपूर्वकरणके अबाधाकालसे अन्तर्मुहूर्त अधिक होकर स्थित है वह पूर्वमें जो उपशमश्रेणिपर चढ़ा और उतरा था उसके उस समय प्राप्त हुए अबाधाकालके भीतर नहीं प्रविष्ट होकर प्राप्त हीती है। इस सब व्यवस्थाको मनमें निश्चित करके 'विदियाए उवसामणाए अबाहा जम्हि संपुण्णा सा द्विदी आदिवा' ऐसा सूत्रकारने कहा है।
६६८१. यहाँ सुत्रमें जो 'विदियाए उवसामणाए' ऐसा कहा है सो इससे दूसरे भवसम्बन्धी कषायोंके उपशमानेके दोनों ही बार ग्रहण करने चाहिये, क्योंकि जातिकी अपेक्षा ये दोनों एक हैं, इसलिये एक वचनरूपसे इनका कथन किया है। या यह सूत्र अन्तदीपकभावसे प्रवृत्त हुआ है, इसलिये सूत्रमें एकवचनका निर्देश किया है। अब पहले जो असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध कहा है उसके प्रथम निषेकको प्राप्त कराके और अबाधाके भीतर प्रवेश कराके अनिवृत्तिकरणके संख्यात भागोंको और अपूर्वकरणको बिताकर फिर क्रमसे जब अप्रमत्तसंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अधिकृत गोपुच्छा उदयको प्राप्त होती है तब क्रोधसंज्वलनका यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य उत्कृष्ट होता है। इसप्रकार इस बातको हृदयमें करके सूत्र में 'तम्हि उक्कस्सयमधाणिसेयट्टिदिपत्तयं' यह वचन कहा है। उस स्थितिविशेषके उदयको प्राप्त होनेपर प्रकृत उत्कृष्ट
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