Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 437
________________ ४१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अवहिदो संचओ होइ । गवरि गोवुच्छविसेसं पडि विसेसो अत्थि सो जाणियव्यो । तत्तो परं पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तमोसरिय अण्णे द्विदिबंधे आढत्ते असंखेज्जभागवडीए विसरिसो संचओ समुप्पज्जइ । एत्थ वि पुव्वं व परूणा कायव्वा । एवं जत्थ जत्थ हिदिबंधोसरणं भविस्सदि तत्थ तत्थ सेसहिदि हिदिपरिहाणिं च जाणिदण संचयपरूवणा कायव्वा । एवमण विहाणेण अधापवत्त-अपुवकरणाणि वोलिय अणियहिअदाए संखेजे भागे च गंतूण जाव दूरावकिट्टिसण्णिदो हिदिबंधो चेहइ ताव गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेहिमसमयसंचयं च पेक्खियूण समयं पडि जो संचओ सो असंखेजभागवड्डीए चेव गच्छइ । तदो पलिदोवमस्स संखे०भागमेत्तदूरावकिट्टिसण्णिदहिदिबंधे अच्छिदे सेसस्स असंखेज्जा भागा हाइयण असंखेजदिभागो बज्झइ । एवं बंधमाणस्स वि असंखेजभागवड्डी चेव होऊण गच्छइ जाव जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणिपमाणो हिदिबंधो जादो त्ति । तदित्थहिदि बधमाणस्स असंखेजभागवड्डीए पज्जवसाणं होइ । पुणो एयगुणहाणि हाइयूण बंधमाणस्स गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेडिमसमयसंचयं च पेक्खियूण संखेजभागवड्डीए आदी जादा । एदं च सेढीए संभवं पडुच्च भणिदं, अण्णहा सेससेसस्स असंखेजे भागे परिहाविय बधमाणस्स तहाविहसंभवाणुवलंभादो। संपहि चिराणसंचयं पेक्खियूणासंखेज्जभागवड्डी चेव तस्सोकडडुक्कडुणभागहारोवट्टिददिवड्डगुणहाणिहोता है। किन्तु गोपुच्छविशेषकी अपेक्षा विशेषता है सो जान लेनी चाहिये। फिर उससे आगे पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम अन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए असंख्यातभागवृद्धिसे विसदृश संचय उत्पन्न होता है। यहाँ भी पहलेके समान कथन कर लेना चाहिये । इस प्रकार जहाँ जहाँ स्थितिबन्धापसरण होगा वहाँ वहाँ शेष स्थिति और स्थितिपरिहानिको जानकर सञ्चयका कथन करना चाहिये । इस प्रकार इस विधिसे अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको बिता कर अनिवृत्ति करणके काल में संख्यात बहुभागप्रमाण स्थान जाकर दूरापकृष्टि संज्ञावाले स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक प्रति समयमें व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे और अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें हुए सञ्चयसे प्रत्येक समयमें होनेवाला सञ्चय असंख्यातभागवृद्धिको लिये हुए होता है। फिर पल्यके संख्तातवें भागप्रमाण दुरापकृष्टिसंज्ञक स्थितिबंधके रहते हुए शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका घात करके असंख्यातवाँ भाग प्रमाण स्थितिका बन्ध होता है । सो इसप्रकारका बन्ध करनेवाले जीवके भी प्रति समय असंख्यातभागवृद्धि ही होती है और यह जघन्य परीतासंख्यातके जितने अर्धच्छेद हों उतने गुणहानिप्रमाण स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक होती रहती है। इस प्रकार यहाँ अन्तमें जो स्थिति प्राप्त हो उसका बन्ध करनेवाले जीवके असंख्यातभागवृद्धिका पर्यवसान होता है। फिर एक गुणहानिका कम स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उस समय व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा और अन्तरवर्ती नीचेके समयमें हुए संचयकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है । किन्तु यह सब श्रेणिमें सम्भव है इस अपेक्षासे कहा है, अन्यथा उत्तरोत्तर जो स्थितिबन्ध शेष रहता है उसका असंख्यातवाँ भाग कम होकर आगे आगे बन्ध होता है इस प्रकारकी सम्भावना नहीं उपलब्ध होती। यहाँ पुराने संचयकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि उसका प्रमाण एक समयप्रबद्धमें अपकर्षण-उत्कर्षणसे भाजित डेढ़ गुणहानिका भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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