Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए कीणाझीणचूलियाए सामित्तं
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* तस्सेव आवलियउववरणस्स जहणणयमुदयादो भी हिदियं । ९५५२, तस्सेव उवसंतकसायचरदेवस्स उत्पत्तिपढमसमय पहुडि आवलियमेतका बोलाविय समवडियस्स जहण्णयमुदयादो होइ । कुदो पढमसमयववण्णं परिहरिय एत्थ पयदजहण्णसामित्तं दिज्जइति णासंकणिज्जं, तत्थतणपढमणिसे यादो दस विवक्खियणिसेयस्स समऊणावलियमेत्त गोवुच्छविसेसेहि हीणत्तदंसणादो | ण च एत्थ विसमऊणावलियमेत्तका लमसं खेज्जलोयपडिभाएणोदीरिददव्वं तत्थासंतमत्थि होता है । यतः उपशान्तकषायचर देवके विशुद्धिकी अधिकता होती है अतः इसके अधिक परमाणुओं का अपकर्षण होगा । तथा अनिवृत्तिचर देव के संक्लेशकी अधिकता होती है अतः इसके कम परमाणुओं का अपकर्षण होगा, इसलिये आठ कषाय आदि उक्त प्रकृतियों का स्वामित्व उपशान्तकषायचर देवको न देकर अनिवृत्तिचर देवको देना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । टीका में इस शंकाका समाधान करते हुए जो यह बतलाया गया है कि उपशमश्रेणिमें कहीं से भी मर कर जो देव होता है उसके एकसे परिणाम होते हैं इस विवक्षा से यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है और यहाँ पर उपशमश्रेणि में स्थान भेदसे जो हीनाधिक परिणाम पाये जाते हैं उनकी विवक्षा नहीं की गई है सो इस समाधानका आशय यह है कि चूर्णिसूत्रकारने यद्यपि उपशान्तचर देवके उक्त प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व बतलाया है पर वह अनिवृत्तिचर देवके भी सम्यक् प्रकारसे बन जाता है फिर भी चूर्णिसूत्रकारने एक साथ सब प्रकृतियोंके स्वामित्वके प्रतिपादनके लिहाज से वैसा किया है।
एक मत यह पाया जाता है कि नरकगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें क्रोधका, तिर्यंचगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में मायाका मनुष्यगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मानका और देवगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में लोभका उदय रहता है । इस नियम के आधारसे शंकाकारका कहना है कि इस हिसाब से देवगतिके प्रथम समय में केवल लोभका जघन्य स्वामित्व प्राप्त हो सकता है अन्यका नहीं, क्योंकि जिस जीवने उपशमश्रेणिमें बारह कषायोंका अन्तर कर दिया है उसके देवोंमें उत्पन्न होनेपर प्रथम समय में अपकर्षण होकर लोभका ही उदय समयसे निक्षेप होगा अन्यका नहीं । अतः जब वहाँ अन्य प्रकृतियोंका उदद्यावलिमें निक्षेप ही सम्भव नहीं तब उनका जघन्य स्वामित्व कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? इस शंकाका जो समाधान किया गया है उसका आशय यह है कि देव पर्यायके प्रथम समयमें केवल लोभके उदयका ही नियम नहीं है अतः वहाँ उक्त सभी कषायोंका जघन्य स्वामित्व बन जाता है ।
* उसी देवको जब उत्पन्न हुए एक आवलि काल हो जाता है तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओं का स्वामी है ।
$ ५५२. वही उपशान्तकषायचर देव जब उत्पत्तिकालसे लेकर एक प्रावलिकाल बिताकर स्थित होता है तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओं का स्वामी होता है । यदि ऐसी आशंका की जाय कि प्रथम समय में उत्पन्न हुए देवको छोड़कर यहाँ उत्पन्न होनेसे एक आवलि कालके अन्तमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान क्यों किया जा रहा है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम समयवर्ती जीवके जो निषेक होता है उससे यह विवक्षित निषेक एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे हीन देखा जाता है । यदि कहा जाय कि एक समय कम आवलिप्रमाण काल तक असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदीरणाको प्राप्त हुआ द्रव्य जो कि प्रथम समय में नहीं है यहाँ पर पाया जाता है सो ऐसा
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