Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गा० २२] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३३९
३३९ सामित्तं गिरवजमिदि सिद्धं ।
* इत्थिवेदस्स वि जहएणयाणि तिणि वि झीणहिदियाणि एदस्स चेव तिपलिदोवमिएसु णो उववरणयस्स कायव्वाणि ।
निर्दोष है यह बात सिद्ध हुई।
विशेषार्थ- यहाँ अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा नपुंसकवेदके झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी बतलाया है। इसके लिये सूत्रमें जो विधि बतलाई है वह सब क्षपितकाशकी विधि है, इसलिये इसका यहाँ विशेष खुलासा नहीं किया जाता है। टीकामें उसका खुलासा किया ही है। किन्तु कुछ बातें यहाँ ज्ञातव्य हैं, इसलिये उन पर प्रकाश डाला जाता है। प्रथम बात तो यह है कि सूत्र में पहले दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण कराके फिर संयमासंयम आदि काण्डकोंके करनेका निर्देश किया है, इसलिये यह प्रश्न हुआ कि ये संयमासंयमादि काण्डकोंमें परिभ्रमण करनेके बार दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करनेके पहले होते हैं या बादमें होते हैं ? इस शंकाका जो समाधान किया है उसका
आशय यह है कि ये दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करनेके पहले ही हो जाते हैं, क्योंकि जिस समय ये होते हैं वह काल इसके पहले ही प्राप्त होता है। पहले जघन्य प्रदेशसत्कर्मका निर्देश करते हुए भी संयमासंयमादिकके काण्डकोंको कराके ही दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ भ्रमण कराया गया है। इससे भी उक्त बातकी ही पुष्टि होती है, इसलिये यहाँ सूत्र में जो व्यतिक्रमसे निर्देश किया है वह कोई खास अर्थ नहीं रखता ऐसा यहाँ समझना चाहिये । दूसरी बात यह है कि सूत्रमें जो यह निर्देश किया है कि ऐसा जीव पूर्वोक्त विधिसे आकर जब अन्तमें संयमी होता है तब संयमको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान करना चाहिये। इस पर शंकाकारका यह कहना है कि यदि प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व न देकर द्वितीयादि समयोंमें जघन्य स्वामित्व दिया जाता है तो इससे विशेष लाभ है। वह यह कि प्रथम समयमें एक समय कम एक आवलिप्रमाण निषेकोंमें जितना द्रव्य होता है द्वितीयादि समयोंमें वह और कम हो जायगा, क्योंकि आगे
आगेके निषेकोंमें एक एक चयघाट द्रव्य देखा जाता है। इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि संयमको प्राप्त होते ही प्रथम समयसे यह जीव गुणश्रेणिकी रचना करने लगता है । यतः नपुंसकवेद अनुदयरूप प्रकृति है अतः इसकी गुणश्रणि रचना उदयावलिके बाहरके निषेकोंमें होगी। अब जब यह जीव दूसरे समयमें जाता है तब इसके उदयावलिके भीतरका प्रथम निषेक स्तिवुक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप परिणम जानेसे उदयावलिके बाहरका एक निषेक उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाता है। यतः उदयावलिमें प्रविष्ट हुए इस निषेकमें प्रथम समयमें अपकर्षित हुआ गुणश्रेणि द्रव्य भी आ मिला है अतः दूसरे समयमें एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण निषेकोंका जो द्रव्य है वह प्रथम समयमें प्राप्त हुए एक समय कम एक आवलिप्रमाण निषेकोंके द्रव्यसे अधिक हो जाता है, अतः द्वितीयादि समयोंमें जघन्य स्वामित्वका विधान न करके प्रथम समयमें ही किया है।
__* अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा स्त्रीवेदके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका भी स्वामी यही जीव है। किन्तु इसे तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न नहीं कराना चाहिये।
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