Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 419
________________ सायपाहुडे ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ भणंतस्स मुत्तयारस्स को अहिप्पाओ ? ण, उवरि संकिलेसविसोहीणं परावत्तशुक्लंभादो। __६४२. पुणो वि पयदसामियस्स संचयकालब्भंतरे आवासयविसेसपरूवणढमुत्तरो सुत्तकलावो * एदम्हि पुण काले सो परइओ तप्पाओग्गउकस्सयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो। समाधान नहीं, क्योंकि इस काल के सिवा अन्यत्र संक्लेश और विशुद्धिका परावर्तन नहीं बन सकता है, इसलिये और आगे जाकर ऐसा नहीं कहा है। विशेषार्थ-एक तो शेष गतियोंमें कभी संक्लेशकी और कभी विशुद्धताकी बहुलता रहती है, इसलिये वहाँ उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका संचय नहीं हो सकता और दूसरे यथानिषेकके उत्कृष्ट संचयके लिये निकाचितकरणकी प्राप्ति आवश्यक है। जिसमें विवक्षित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणा ये कुछ भी सम्भव नहीं हैं वह निकाचितकरण माना गया है। इस करणकी प्राप्तिके लिए बहुलतासे संक्लेशरूप परिणामोंकी प्राप्ति आवश्यक है। यतः बहुतायतसे ये परिणाम अन्य गतियों में नहीं पाये जाते, इसलिये भी वहाँ उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका संचय नहीं हो सकता। यही कारण है कि इसका उत्कृष्ट स्वामित्व नरकगतिमें बतलाया है। उसमें भी सातवें नरकके नारकीके जितना अधिक संक्लेश सम्भव है उतना अन्यत्र सम्भव नहीं है, इसलिये यह उत्कृष्ट स्वामित्व सातवें नरकके नारकीको दिया गया है। अब यह देखना है कि सातवें नरकमें भी यह उत्कृष्ट ल्वामित्व कब प्राप्त होता है। इस विषयमें चूर्णिसूत्रकारका कहना है कि कोई मनुष्य या तिथंच ऐसे समयमें नरकमें उत्पन्न हुआ जब उत्पन्न होनेके कुछ ही काल बाद यथानिषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट संचयका प्रारम्भ होनेवाला है उसके उस कालके समाप्त होनेके अन्तिम समयमें यह उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है । यहाँ जो कुछ अधिक काल बतलाया है सो उससे नारकीके योग्य जघन्य अपर्याप्तकाल और जघन्य आबाधाकाल लेना चाहिये। सातवें नरकमें उत्पन्न होनेके इतने काल बाद यथानिषेकस्थितिप्राप्तका संचयकाल प्रारम्भ होता है और जब यह काल समाप्त होता है तब अन्तमें उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। यह संचय काल पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है यह तो पहले ही बतलाया जा चुका है। यद्यपि यह संचयकाल जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे अनेक प्रकारका है फिर भी यहाँ उत्कृष्ट कालका ग्रहण न करके जघन्य कालका ग्रहण किया है, क्योंकि उत्कृष्ट कालके भीतर अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा बहुत अधिक द्रव्यके विनाश होनेका भय है। सूत्रमें आये हुए 'जहण्णेण' पदसे भी इसी बातका सूचन होता है। यद्यपि इस पदका जघन्य आबाधा अर्थ करके भी काम चलाया जा सकता है, क्योंकि तब जघन्य आबाधासे अधिक उत्कृष्ट संचय कालके अन्तमें उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह अर्थ फलित किया जा सकता है। किन्तु इससे पूर्वोक्त अर्थ मुख्य प्रतीत होता है और यही कारण है कि इस पदके दो अर्थ करके भी टीकामें पूर्वोक्त अर्थ पर जोर दिया है। ६६४२. अब प्रकृत स्वामीके संचय कालके भीतर आवश्यक विशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * परन्तु इस संचय कालके भीतर वह नारकी तत्यायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानोंको निरन्तर प्राप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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