Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * अरह-सोगाणं जहण्णयमुदयादो भी द्विदियं कस्स ? ६५७३. सुगमं । * एइंदियकम्मेण जहरणएण तसेसु श्रागदो । तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो। चत्तारि वारे कसायमुवसामिदा । तदो एइंदिए गदो । तत्थ पलिदो मस्स असंखेज्जदिभाग मच्छिदो जाव उवसामयसमयपबद्धा गिलिदा ति । तदो मगुस्सेसु आगदो । तत्थ पुव्वकोडी देसूणं संजम पालियू पडिवदिदेश सम्मत्तेण वेमापिएस देवेस उबवण्णो । अंतोमुहुत्तमुववण्णो उक्कस्ससंकिलेसं गदो । अंतोमुहुत्तमुक्कस्सहिदिं बंधियूण परिभग्गो जादो तस्स श्रावलियपडिभग्गस्स भय-दुगुंद्वाणं वेदयमाणस्स ३५४ [ पदेसविहत्ती ५ अपेक्षा इन दो प्रकृतियोंके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व जो क्षपितकर्माश विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके कहा है । उसमें भी प्रकृत जबन्य स्वामित्व के लिये ऐसा स्थल चुना गया है जहाँ इन दोनों प्रकृतियोंका केवल एक एक निषेक ही उदद्यावलिके भीतर प्राप्त हो । यह तभी हो सकता है जब उपशमश्रेणिमें अन्तरकरण करनेके बाद अन्तरकालमें स्थित इस जीवको देवोंमें उत्पन्न कराया जाय । यद्यपि यह अवस्था अन्तरकरणके बादसे लेकर नौवें, दसवें या ग्यारहवें किसी भी गुणस्थानसे मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके हो सकती है पर यहाँ उपशान्तमोह गुणस्थानसे मरकर जो जीव देवों में उत्पन्न होता है उसके बतलाई है, क्योंकि तब अति और शोकका केवल एक निषेक ही उदद्यावलिमें पाया जाता है । कुछ आचार्य अन्तरकरके बाद प्रथम स्थितिके समाप्त हो जाने पर जो जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके दूसरे समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व बतलाते हैं पर वैसा कथन करनेमें कोई विशेष लाभ नहीं है, अतः उक्त स्वामित्व ही ठीक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन सुगम होनेसे यहाँ उसका निर्देश नहीं किया है । * उदयकी अपेक्षा अरति और शोकके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ? ६५७३. यह सूत्र सुगम है । * कोई एक जीव एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ सोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ बहुतबार संयमासंयम और संयमको प्राप्त करके और चार बार कषायका उपशम करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उपशामकके समयप्रबद्धों के गलनेवाले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा। फिर आकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । वहाँ कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक संयमका पालन कर उससे च्युत हुए बिना सम्यक्त्व के साथ वैमानिक देवोंमें उत्पन्न हुआ । फिर उत्मन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ । फिर अन्तर्मुहूर्त कालतक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके उससे निवृत्त हुआ । इस प्रकार निवृत्त हुए इसको जब एक आवलि काल हो जाता है तब भय और जुगुप्साका भी वेदन करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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