Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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.० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं त्ति उत्तं होइ । आमरणंतं गुणसेढिणिज्जरमकराविय किमहमेसो मिच्छत्तं णीदो ? ण, अण्णहा दसवस्ससहस्सिएम देवेसु उववज्जावेदुमसक्कियत्तादो। तत्थुप्पायणं च सव्वलहु एइंदिएमुप्पाइय सामितविहाणहमवगंतव्वं । जइ एवं संजदो चेव अंतोमुहुत्तसेसाउओ मिच्छत्तवसेण एइंदिएसुप्पाएयव्यो । दसवस्ससहस्सियदेवेसुप्पायणमणत्थयं, दसवस्ससहस्सब्भंतरसंचयस्स तत्थ संभवेण फलाणुवलं भादो। ण अंतोमुहुत्तमुववण्णेण सम्मत्तं लद्धमिच्चेदेण सुत्तावयवेण तस्स परिहारो, त्थिवुकसकमवसेण तत्थतणपुरिसवेदसंचयस्स दुप्पडिसेहादो ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे---ण ताव एसो संजदो मिच्छत्तं णेद्ग एइंदिएसुप्पाइ, सक्किजइ, तत्थुप्पज्जमाणस्स तस्स तिव्वसंकिलेसेण पुव्वगुणसेदिणिज्जराए थोक्यरत्तप्पसंगादो । ण एत्थ वि तहा पसंगो, देवगइपाओग्गमिच्छत्तदादो एइदियपाओग्गमिच्छत्तद्धाए संकिलेसावूरणकालस्स च संखेजगुणत्तेण एत्थतणहाणीदो बहुतरहाणीए तत्थुवलंभादो। ण एत्थ देवेसु संचओ
शंका-मरणपर्यन्त गुणश्रेणिनिर्जरा न कराके इसे मिथ्यात्वमें क्यों ले गये हैं ?
समाधान—नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमें ले जाये बिना दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न कराना अशक्य होता, इसलिये अन्तमें इसे मिथ्यात्वमें ले गये हैं। अतिशीघ्र एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराके प्रकृत स्वामित्वका विधान करनेके लिये ही दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न कराया गया है यहाँ ऐसा जानना चाहिये।
शंका-यदि ऐसा है तो संयतको ही अन्तर्मुहूर्त आयुके शेष रहने पर मिथ्यात्वमें ले जाकर और उसके कारण एकेन्द्रियोमें उत्पन्न कराना चाहिये। दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न कराना अनर्थक है, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न करानेसे दस हजार वर्षके भीतर जो संचय प्राप्त होता है वह उसके बाद एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराने पर वहाँ पाया जाता है, इसलिये देवोंमें उत्पन्न करानेसे कोई लाभ नहीं है। यदि कहा जाय कि इससे आगे सूत्रमें जो 'अंतोमुहुत्तमुववण्णेण सम्मत्तलद्ध' इत्यादिक कहा है सो इस वचनसे उक्त शंकाका परिहार हो जाता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देवपर्यायमें जो पुरुषवेदका संचय होता है एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर वह संचय स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा नपुंसकवेदमें प्राप्त होने लगनेके कारण उसका निषेध करना कठिन है ?
समाधान---अब उक्त शंकाका परिहार करते हैं -- इस संयतको मिथ्यात्वमें ले जाकर एकेन्द्रियोंमें तो उत्पन्न कराना शक्य नहीं है, क्योंकि जो संयत मिथ्यात्वमें जाकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाला है उसके तीव्र संक्लेश पाया जानेके कारण पूर्वं गुणश्रेणिनिर्जरा बहुत ही कम प्राप्त होती है।
__ यदि कहा जाय कि जो संयत मिथ्यात्वमें जाकर देव होनेवाला है उसके भी तीव्र संक्लेशके कारण पूर्व गुणश्रेणिनिर्जरा अति स्वल्प प्राप्त होती है सो यह बात नहीं है, क्योंकि देवगतिके योग्य मिथ्यात्वके कालसे एकेन्द्रियके योग्य जो मिथ्यात्वका काल है वह संख्यातगुणा है और उसके योग्य संक्लेशको प्राप्त करनेमें भी जो काल लगता है वह भी संख्यातगुणा है, इसलिये एकेन्द्रियोंके मिथ्यात्वमें गुणश्रेणिनिर्जराकी जितनी हानि होति है उससे देवगतिके मिथ्यात्वमें बहुत हानि पाई जाती है । यदि कहा जाय कि यहाँ देवोंमें अधिक संचय होता है, इसलिये उक्त दोष तो
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