Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अहिओ ति उत्तदोसो वि, तस्स संखेज्जावलियमेत्तसमयपबद्धपमाणस्स एयसमयगुणसेढिणिज्जराए असंखेजदिभागत्तेण पाहणियाभावादो। एदेणेव सेसगईसु वि उप्पायणासंका पडिसिद्धा, तत्थुप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तद्धाए बहुत्तदंसणादो। किमहमेसो दसवस्ससहस्सिएसु सम्मत्तं गेहविओ ? ण, ओकड्डणाबहुत्तेण अहियारहिदीए सण्डीकरण तहाकरणादो। मिच्छादिहिम्मि वि एत्थासंती ओकड्डणा बहुई अत्थि, तदो उहयत्थ वि सरिसमेदं फलमिदि णासंकणिज्जं, तत्थ प्रोक्कड्डणादो सम्माइडिओक्कड्डणाए विसोहिपरतंताए बहुवयरत्तदंसणादो। तम्हा सुहासियमेदमंतोमुहुत्तमुववण्णेण तेण सम्मत्तं लद्धमिदि। एवमधहिदीए णिज्जरं काऊण अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्यए त्ति मिच्छत्तं गदो, एइदिएमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो मिच्छत्तमेसो णीदो । तत्थ उप्पादो किमहमिच्छिज्जदे चे ? ण, एईदियोववादिणो देवस्स तप्पच्छायदपढमसमए एइंदियस्स च संकिलेसवसेण उकड्डणाबहुत्तमोकड्डणोदीरणाणं च थोवत्तमिच्छिय तहाब्भुवगमादो । बा ही रहता है अर्थात् मिथ्यात्वमें ले जाकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न करानेसे जो दोष प्राप्त होता है वह दोष यहाँ भी बना रहता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक देवके जो संख्यात आवलिप्रमाण समयप्रबद्धोंका संचय होता है वह एक समयमें होनेवाली गुणश्रोणि निर्जराके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे उसकी यहाँ प्रधानता नहीं है। इसीसे शेष गतियोंमें भी उत्पन्न करानेकी आशंकाका निषेध हो जाता है, क्योंकि वहाँ उत्पन्न करानेके योग्य मिथ्यात्वका काल बहुत देखा जाता है।
शंका-इसे दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें ले जाकर सम्यक्त्व किसलिये ग्रहण कराया गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अधिक अपकर्षणाके द्वारा अधिकृत स्थितिके सुक्ष्म करने के लिये वैसा कराया गया है।
शंका—जो अपकर्षण यहाँ सम्यग्दृष्टिके नहीं होता वह मिथ्यादृष्टिके भी बहुत देखा जाता है इसलिये विवक्षित लाभ तो दोनों जगह ही समान है, फिर इसे सम्यग्दृष्टि करानेसे क्या
समाधान_ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जो अपकर्षण होता है वह विशुद्धिके निमित्तसे होता है इसलिये वह मिथ्यादृष्टिके होनेवाले अपकर्षणसे बहुत देखा जाता है।
इसलिये सूत्रमें जो 'अंतोमुहुत्तमुववण्णेण तेण सम्मत्तं लद्धं' यह कहा है सो उचित ही कहा है। इस प्रकार उक्त जीव अधःस्थितिकी निर्जरा करता हुआ जब जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, क्योंकि अन्यथा एकेन्द्रियोंमें उत्पत्ति नहीं बन सकनेके कारण इसे मिथ्यात्वमें ले गये हैं।
शंका-ऐसे जीवका अन्तमें एकेन्द्रियोंमें उत्पाद किसलिये स्वीकार किया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जो देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें और जो एकेन्द्रिय एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संक्लेशके कारण उत्कर्षण बहुत होता है और अपकर्षण तथा उदीरणा
लाभ है ?
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