Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पंचिंदियतिरिक्ख--पंचिंतिरिक्खपज्जत्ताणं पढमढविभंगो । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीणं विदियपुढविभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. अहावीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्क० पदे० केत्ति ? असंखेजा। एवं मणुसअपज्ज०-भवण-वाणः-जोदिसिए त्ति ?
६५. मणुसगदि० मिच्छ०-बारसक०--छण्णोक० उकस्साणुक० पदे. असंखेज्जा । सम्म०-सम्मामि०-चदुसंज०-तिण्णिवेदाणमुक्क० केत्ति० १ संखेजा। अणुक० पदे०वि० केत्ति ? असंखेजा। मणुसपज्जत्त०-मणुसिणीसु सव्वसिद्धि० अहावीसं पयडीणमुक्क०-अणुक्क० पदेस० केत्ति ? संखेजा।।
१६६. देवगदीए देवेसु सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति पढमपुढविभंगो । आणदादि जाव अवराइदो ति अहावीसं पयडीणं उक्क० पदे०वि० केत्ति० १ संखेज्जा । अणुक्क० केत्ति० १ असंखेज्जा । एवं गेदव्वं जाव अणाहारि ति । असंख्यात हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ—पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें पहली पृथिबीके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है । परन्तु पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ___६६५ मनुष्यगतिमें मनुष्यों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और तीन वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त, मनुध्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने है ? संख्यात हैं।
६६. देवगतिमें देवोंमें तथा सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-बारहवें कल्प तक तिर्यञ्च भी मरकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए वहाँ तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जानने की सूचना की है । तथा
आगेके देवोंमें मनुष्य ही मर कर उत्पन्न होते हैं, इसलिए अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात प्राप्त होनेसे वहाँ वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
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