Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[षदेसविहत्ती ५ संखे समया । अणुक० सम्वदा । एवमाणदादि जाव सम्वसिदि त्ति ।
८७. मणुसअपज्ज. छव्वीसं पयडीणमुक्क० पदे. जह० एगस०, उक्क. आवलि. असंखे० भागो। अणुक० जह. खुद्दाभव० समऊणं, उक्क. पलिदो. असंखे०भागो । सम्म०-सम्मामि० एवं चेव । णवरि अणुक्क० जह० एगस० ।
३.८८. देवगदीए देवाणं पढमपुढविभंगो । एवं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । भवण-वाण-जोइसि० विदियपुढविभंगो । एवं णेदव्वं जाब अणाहारि ति ।
प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार अानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-सामान्य मनुष्योंमें जिस प्रकार ओघमें घटित करके बतला आये हैं उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल इनमें अपने स्वामित्वके अनुसार संख्यात समय ही प्राप्त होता है, इसलिए इन दोनों प्रकृतियोंकी परिगणना यहाँ सम्यक्व आदिके साथ की है। मनुष्य पर्याप्त, मनुध्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देव तो संख्यात होते ही हैं। अानतादिमें ये ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय बननेसे उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६८७. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है।
विशेषार्थ—मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है। यह सम्भव है कि इस मार्गणामें नाना जीव क्षुल्लक भव तक ही रहें। इसलिए इस कालमेंसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका एक समय काल कम देने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण बन जानेसे यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम चुल्लक भवग्रहणप्रमाण कहा है। तथा इस मार्गणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहां सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल उक्त काल प्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जानेसे उक्त काल प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६८ देवगतिमें देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सौधर्मकल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-सौधर्मादि देवोंमें भी प्रथम पृथिवीके नारकियोंके समान कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें प्रथम पृथिवीके नारकियोंके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। तथा भवनत्रिकमें कृतकृत्यवेदकसम्यदृष्टि जीव मर कर
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