Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
PrivWvA
गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूपणा भागहीणा । एवं सम्मामि० । एवं मणुस्सअपज्ज. ।
१८. मणुसतियम्मि ओघं। णवरि मणुस्सिणीसु पुरिसवेद० उक्क० पदेसविह० इत्थिवेद० णियमा अणुक्क० असंखे०गुणहीणा। अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मिच्छ० उक्क० पदे०वि० सम्मामिच्छत्त-सोलसक०-छण्णोक० णियमा तं तु विहाणपदिदा अणंतभागहीणा असंखे०भागहीणा वा । सम्मत्त० णियमा अणुक्क० असंखे०भागहीणं । तिण्हं वेदाणं णियमा अणुक्क० असंखे०भागहीणा । एवं सोलसक०-छण्णोक०-सम्मामिच्छत्ताणं । सम्मत्त० उक्क० पदे विहत्ति० बारसक०णवणोक. णियमा अणुक्क० असंख०भागहीणा। इत्थिवेद० उक्क० पदे०वि० मिच्छ०सम्मामि०-सोलसक०-अहणोक० णियमा अणुक० असंखे० भागहीणा । सम्म० हीन होती है या असंख्यातभाग हीन होती है। शेष प्रकृतियोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार अर्थात् पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान सन्निकर्ष जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो विशेषता सामान्य नारकियोंमें बतला आये हैं वही यहाँ तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्थञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें घटित हो जाती है, इस लिए इनमें सामान्य नारकियों के समान जाननेकी सूचना की है। दूसरी पृथिवीके समान पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी और भवनत्रिकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक यह मार्गणा ऐसी है जिसमें मात्र मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं इसलिए इसमें अन्य प्ररूपणा तो पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंके समान बन जाने से उनके जाननेकी सूचना की है। किन्तु इसके सिवा जो विशेषता है उसका अलगसे निर्देश किया है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है यह स्पष्ट ही है।
६८. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभवाले जीवके स्त्रीवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह लोकयायोंकी नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भी होती है और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तभाग हीन होती है या असंख्यातभागहीन होती है। सम्यक्त्वकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुण हीन होती है। तीन वेदोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यतभागहीन होती है। इसी प्रकार सोलह कषाय, छह नोकषाय और सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org