Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२८१ अंतोमुहुत्तमेत्तकालं छवड्डि-हाणिपरिणामेहि ओकड्डिजमाणपदेसग्गस्स चउविहवडिहाणिकारणभूदेहि गुणसेटिं करेमाणो ताव गच्छदि जाव एवं पूरिदाणि गुणसेढिसीसयाणि दो वि दुचरिमसमयअपत्तउदयहिदियाणि त्ति । तदो से काले मिच्छत्तं गदस्स तस्स जाधे गुणसेढिसीसयाणि एत्तिएण पयत्तेण पूरिदाणि दो वि जुगवमुदिण्णाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं होदि त्ति एसो मुत्तस्स समुदायत्थो। कुदो एदस्स उदिण्णस्स उदयादो झीणहिदियत्तं ? ण, पुणो तप्पाओग्गत्ताभावं पेक्वियूण तहोचएसादो । एत्थ जाधे दो वि गुणसेढिसीसयाणि उदयावलियं ण पविसंति ताधे चेय संजदो किम मिच्छत्तं ण णीदो ? ण, अधापवत्तसंजदगुणसेढिलाहस्स अभावप्पसंगादो। जइ एवं, गुणसेढिसीसएम उदयावलियम्भंतरं पइहेसु मिच्छत्तं णेहामो उवरि अविणद्वेणुवसंजमेणावहाणफलाणुवलंभादो ति ? ण, मिच्छाइहिउदीरणादो विसोहिवसेणासंखेजगुणसंजदउदीरणाए जणिदलाहस्स एत्थ वि अभावावत्तीदो। ण च तत्थ मिच्छत्तस्स उदयाभावपुवउदीरणाभावेण पयदफलाभावो आसंकणिजो, प्रकार इस भावको प्राप्त करके अधिकृत दोनों ही गुणश्रोणिशीर्णो के आगे अपकर्षणको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंके चार प्रकारकी हानि और वृद्धियोंके कारणभूत छह प्रकारकी वृद्धि और हानिरूप परिणामोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालतक गुणश्रेणिको करता हुआ तब तक जाता है जब जाकर पूर्वोक्त विधिसे पूरे गये दोनों ही गुणश्रेणिशीर्ष उदयस्थितिके उपान्त्य समयको प्राप्त होते हैं। इसके बाद तदनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर इसके इतने प्रयत्नसे पूरे गये दोनों ही गुणश्रेणिशीर्षे मिलकर उदयमें आते हैं तब मिथ्यात्वके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं । इस प्रकार यह इस सूत्रका समुदायार्थ है।
शंका-जब कि ये उदयप्राप्त हैं तब ये उदयसे झीनस्थितिवाले कैसे हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ये फिरसे उदययोग्य नहीं हो सकते, इसलिये इन्हें उदयसे झीनस्थितिवाला कहा है।
शंका-यहाँ दोनों ही गुणश्रेणिशीर्षों के उदयावलिमें प्रवेश करनेके पहले संयतको मिथ्यात्व गुणस्थान क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा करनेसे इसके अधःप्रवृत्तसंयतके होनेवाली गुणश्नेणिके लाभका अभाव प्राप्त होता।
शंका-यदि ऐसा है तो गुणश्रेणिशीर्षोंके उदयावलिमें प्रवेश करनेपर मिथ्यात्व गुणस्थानमें ले जाना उचित था, क्योंकि इसके आगे संयमका नाश किये बिना उसके साथ रहनेका कोई फल नहीं पाया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके होनेवाली उदीरणाकी अपेक्षा विशुद्धिके कारण संयतके होनेवाली असंख्यातगुणी उदीरणासे होनेवाला लाभ ऐसी हालतमें भी नहीं बन सकेगा, इसलिये गुणश्रोणिशीर्षोंके उदयावलिमें प्रवेश करते ही इसे मिथ्यात्वमें नहीं ले गये हैं।
यदि कहा जाय कि संयतके मिथ्यात्वका उदय न हो सकनेसे उदीरणा भी नहीं हो सकती, इसलिये यहाँ उदीरणासे होनेवाले फलकी प्राप्ति नहीं हो सकती सो ऐसी आशंका करना भी ठीक
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