Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२६१ मभावो सिद्धो । ण च एत्थ संकिलेसो पत्थि ति वोर्तुं जुत्तं, संकिलेसावरणेण विणा सम्माइहिस्स सम्मामिच्छत्तगुणपरिणामासंभवादो। ण च तत्थ अप्पसत्थमरणं तं तंते ण वुतं, संकिलेसमेत्तेण सह तासिं विरोहपदुप्पायण' तहोवएसादो । तम्हा सुत्तपरूविदाणि चेय दोगुणसे ढिसीसयाणि संकिलेसकालो वि अविणस्संतसरूवाणि जाधे पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स उदयमागयाणि ताधे तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियस्स मिच्छतस्सेव सामित्तं वत्तव्यमिदि सिद्धं ।
सिद्ध हुआ। यदि कहा जाय कि यहाँ संक्लेश नहीं होता सो भी बात नहीं है, क्योंकि संक्लेश पूरा हुए बिना सम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्राप्ति सम्भव नहीं। यदि कहा जाय कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अप्रशस्त मरण होता है यह बात आगममें नहीं कही है सो ऐसा कहकर भी मुख्य बात को नहीं टाला जा सकता है, क्योंकि संक्लेशमात्रके साथ उक्त गुणश्रेणियों के विरोधका कथन करनेके लिये वैसा उपदेश दिया है। इसलिये सूत्रमें कहे गये दो गुणश्रेणिशीर्ष ही नाशको प्राप्त हुए बिना जब सम्यग्मिथ्याष्टिके प्रथम समयमें उदयको प्राप्त होते हैं तभी उसके उदयसे झोनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका मिथ्यात्वके समान उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिए यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ—जो जीव गुणितकमांशकी विधिसे आया और अतिशीघ्र संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जब सम्यग्मिथ्यात्वके प्रथम समयमें इन दोनों गुणश्रेणियोंके शीर्ष उदयको प्राप्त हुए तब इसके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं। किन्तु कुछ आचार्य इन दो गुणणि शीर्षोंके उदयके साथ अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनासम्बन्धी गुणणिशीर्षके उदयको मिलाकर तीन गुणश्रेणिशीर्षों का उदय होनेपर उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते हैं। इतना ही नहीं किन्तु वे यह भी कहते हैं कि यदि इन तीनों गुणश्रेणिशीर्षो का उदय सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके प्रथम समयमें सम्भव न हो तो केवल एक अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणोणिशीर्षका उदय ही पर्याप्त है, क्योंकि संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणोणिशीर्षों में जितने कर्मपरमाणु पाये जाते हैं उनसे इस गुणश्रेणिशीर्षमें असंख्यातगुणे कर्मपरमाणु पाये जाते हैं। किन्तु टीकाकारने उक्त आचार्यो के इस कथनको दो कारणोंसे नहीं माना है। प्रथम कारण तो यह है कि यदि सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणि पाई जाती होती तो चूर्णिसूत्रकार ने उक्त दो गुणश्रेणियोंके साथ इसका अवश्य ही समावेश किया होता, या स्वतन्त्रभावसे इसका आश्रय लेकर ही उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रतिपादन किया होता। किन्तु जिस कारणसे सूत्रकारने ऐसा नहीं किया इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणि नहीं पाई जाती । दूसरे सत्कर्म नामक महाधिकारमें प्रदेशोदयके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिये ग्यारह गुणश्रेणियोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि 'उपशमसम्यक्त्वगुणश्रेणि, संयतासंयतगुणश्रेणि और अधःप्रवृत्तसंयत गुणश्रेणि ये तीन गुणश्रेणियाँ ही मरणके बाद परभवमें दिखाई देती हैं।' इससे ज्ञात होता है कि संक्लेश परिणामों के प्राप्त होने पर केवल ये तीन गुणश्रेणियाँ ही पाई जाती हैं शेष गुणश्रेणियाँ नहीं, क्योंकि उनका काल संक्लेशको पूरा करनेके कालसे थोड़ा है। यतः सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्राप्ति संक्लेशरूप परिणाम हुए बिना बन नहीं सकती अतः सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणनोणि नहीं पाई जाती।
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