Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 329
________________ rrrrrr ३०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं पि तस्लेव । $ ५१०. एत्थ कोहसंजलणस्से त्ति अणुवट्टदे, तेणेवमहिसंबंधो कायव्योतस्सेव जयद्दयविसयीकयस्स पुचिल्लसामियस्स कोहसं जलणसंबंधि उक्स्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि। सेसं पुव्वं ब। णवरि उदिण्णमेदपदेसग्गमेयहिदिपडिबद्धमेत्थ सामित्तविसईकयं होइ। 8 एवं चेव माणसंजलणस्स । णवरि हिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्स तस्स चत्तारि वि उकस्सयाणि झीणहिदियाणि । ५११. माणसंजलणस्स वि एवं चेव सामित्तं दायव्वं । णवरि माणहिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्से त्ति सणामपडिबद्धो आलावभेदो चेव णत्थि अण्णो त्ति समप्पणामुत्तमेयं । चाहिये। इसीप्रकार प्रकृतमें भी जब कि क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व स्वीकार कर लिया तब गुणश्रेणिशीर्षका उत्कृष्ट स्वामित्वविषयक द्रव्यमें अन्तर्भाव माननेमें कोई आपत्ति नहीं है। इस कथनको इसी रूपमें मानने के लिये इसलिये भी जोर दिया है कि अगले सूत्र में जो उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाया है वह ऐसा माने बिना बन नहीं सकता। (२) दूसरे भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा मानवेदकके यह सब स्वकार करके उक्त विरोध शमन किया गया है। यद्यपि ऐसा करनेसे अगले सूत्रके साथ संगति बिठलाने में कठिनाई जाती है पर अगले सूत्रका अर्थ अनुत्पादानुच्छेद अर्थात् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे कर लेनेपर वह कठिनाई दूर हो जाती है। इसप्रकार विविध दृष्टियोंसे विचार करके जहां जो अर्थ संगत बैठे उसे घटित कर लेना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्म परमाणुओंका स्वामी भी वही है । ६५१०. इस सूत्रमें 'कोहसंजलणस्स' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये इस सूत्रका ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि जिसे पहले दो नयोंका विषय बतला आये हैं उसी पूर्वोक्त स्वामीके क्रोधसंज्वलनकी अपेक्षा उदयसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट परमाणु होते हैं। शेष कथन पहलेके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि एक स्थितिगत जो कर्मपरमाणु उदयमें आ रहे हैं उनका ही यहां स्वामित्वसे सम्बन्ध है। विशेषार्थ-क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें क्रोधके जिन कर्मपरमाणुप्रोंका उदय हो रहा है उसमें गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य सम्मिलित है, अतः यहां उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है, क्योंकि उदयगत कर्मपरमाणुओंकी यह संख्या अन्यत्र नहीं प्राप्त होती। * इसी प्रकार मानसंज्वलनका कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसने अपने अन्तिम समयमें मानस्थितिकाण्डकका पतन नहीं किया है वह चारोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है। ५१६. मानसंज्वलनके स्वामित्वका भी इसीप्रकार अर्थात् क्रोधसंज्वलनके समान विधान करना चाहिये। किन्तु जिसने मानस्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उसका पतन नहीं किया है इसप्रकार यहां क्रोधके स्थानमें मानका सम्बन्ध होनेसे कथनमें इतना भेद हो जाता है, इसके सिवा अन्य कोई भेद नहीं है । इसप्रकार यह समपणासूत्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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