Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे समुकित्तणा
१७१ छण्णोक० अवहि० सव्वत्थोवं । उवरि संखेज्जगुणं कायव्वं ।
३४०. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जा ति बारसक०-इत्थि०-हस्स-रइअरइ--सोग--भय--दुगुंछा--सम्मत्त--सम्मामिच्छताणं देवोघो । अणंताणु० चउकस्स सव्वत्थोवा अवत्त० । अवहि. असंखेगुणा । भुज० असंखे.गुणा । अप्प० संखे०गुणा । एवं मिच्छ० । णवरि अवत्त० णस्थि । पुरिस० कसायभंगो। णवूस० इत्थिवेदभंगो। अणुद्दिसादि जाव अवराइद त्ति दंसणतिय-अणंताणु० चउक्क०-इत्थि०णस० वेदाणं णत्थि अप्पाबहुअं। सेसाणमुवरिमगेवज्जभंगो। सबढे एवं चेव । गवरि बारसक०-पुरिस-भय-दुगुंछा० संखे०गुणं कायव्वं । एवं जाव अणाहारए ति ।
एवं भुजगारविहत्ती समत्ता । ॐ पदणिक्खेव-वडीओ च कायव्वाओ ।
६ ३४१. एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-पदाणमुक्कस्स-जहण्ण-वडि-हाणिअवहाणावत्तव्यसण्णिदाणं णिक्खेवो समुकित्तणा-सामित्तादिविसेसेहि णिच्छयजणणं पदणिक्खेवो णाम । भुजगारविसेसो पदणिक्खेवो ति वुत्तं होइ । पदणिक्खेवविसेसो बड्डी णाम । एदाओ दो वि विहत्तीओ भुजगाराणुसारेणेत्थ कायवाओ त्ति अत्थकि छह नोकपायोंकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं । आगे संख्यातगुणा करना चाहिए।
३४०. आनत कल्पसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें बारह कषाय, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मिथ्यात्वके सम्भव पदोंका अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्यविभक्ति नहीं है। पुरुषवेदका भङ्ग कषायोंके समान है। नपुंसकवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें तीन दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अल्पबहुत्व नहीं है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उपरिम वेयकके समान है। सर्वार्थसिद्धिमें इसीप्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका अल्पबहुत्व कहते समय संख्यातगुणा करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इसप्रकार भुजगारविभक्ति समाप्त हुई। * पदनिक्षेप और वृद्धि करनी चाहिए ।
३४१. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-उत्कृष्ट और जघन्य वृद्धि, हानि, अवस्थान और अवक्तव्य संज्ञावाले पदोंका निक्षेप अर्थात् समुत्कीर्तना और स्वामित्व आदि विशेषोंके द्वारा निश्चय उत्पन्न करना पदनिक्षेप कहलाता है। भुजगारविशेषको पदनिक्षेप कहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं। ये दोनों ही विभक्तियाँ भुजगारके
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