Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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लगती है तब कर्म रूपी रज ज्ञानावरणादि रूप से उसमें प्रवेश करता है । जो जीव के साथ यंत्र को प्राप्त हो जाता है ' अमूर्त का मूर्त के साथ बंध
जीव अमूर्ति है और कर्मद्रव्य मूर्तिक है । ऐसी दशा में उन दोनों का बन्ध ही सम्भव नहीं है। क्योंकि मूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध तो हो सकता है, किन्तु अमूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध कैसे सम्भव है ?
इसका समाधान यह है कि अन्य दर्शनों की तरह जैनदर्शन ने जीव और कर्मप्रवाह को अनादि माना है । ऐसी मान्यता नहीं है कि जीव पूर्व में सर्वन शुद्ध था और में बध हुआ | क्योंकि इस मान्यता में अनेक प्रकार की विसंगतियों हैं और शंकाएँ पैदा होती हैं। जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध को स्पष्ट करते 'हुए आचार्यों ने सयुक्तिक समाधान किया है जो इस प्रकार हैजो खलु संसाररथों जीवो तत्तो व होषि परिणामो । परिणामाको धम्मं कम्मावो होदि गदिसु गदि ||
अर्थात् - जो जीव संसार में स्थित है यानि जन्म और मरण के चक्र में पड़ा हुआ है, उसके राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं । उन परिणामों से नये कर्म बन्धते हैं और उन कर्मों के बंध से गतियों में जन्म लेना पड़ता है ।
उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि प्रत्येक संसारी जीव अनादि काल से राग-द्वेषयुक्त है। उस राग-द्वेषयुक्तता के कारण कर्म बंधते हैं। जिसके फलस्वरूप विभिन्न गतियों में पुनः पुनः जन्म-मरण होते रहने से नवीन कर्मों का बन्ध और उस बंध से जन्म-मरण, संसार का चक्र अबाधगति से चलता रहता है ।
जब जन्म लेने से नवीन गति की प्राप्ति होती है तो उसके बाद के क्रम का दिग्दर्शन कराते हुए आचार्य कहते हैं कि-