Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

Previous | Next

Page 11
________________ [ १४ । क्षेत्र में स्थित, सूक्ष्म, कर्मप्रायोग्य अनन्तानन्त 'परमाणुओं से बने होते हैं। आत्मा अपने सब प्रदेशों, सौंग से कर्मों को आकृष्ट करती है। प्रत्येक कर्मस्कन्ध वा सभी आत्मप्रदेशों के साथ बन्धन होता है और बे कर्मस्कन्ध ज्ञानावरण आदि भिन्न-भिन्न प्रकृतियों में निमित्त होते हैं। प्रत्येक आत्मप्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-पुद्गलस्कन्ध चिपके रहते हैं। उक्त कथन का आशय यह है कि जहाँ अन्य दर्शन गाग और द्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी तज्जन्य संस्कारों को स्थायी मानते हैं, वहाँ जैनदर्शन का मन्तव्य है कि राग-द्रप से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ एक प्रकार का द्रव्य' आत्मा में आता है, जो उसके रागदेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बंध जाता है । कालान्तर में वही द्रव्य आत्मा को शुभ या अशुभ फल देता है । जैनदर्शन ने रागद्वेषमय आत्मपरिणति और उसके सम्बन्ध से आकृष्ट संश्लिष्ट भौतिक द्रव्य को क्रमशः भावकर्म और द्रव्यकर्म नाम दिया है । इनमें से भावकम की तुलना योगदर्शन की वृत्ति एवं न्यायदर्शन की प्रवृत्ति से की जा सकती है परन्तु जैनदर्शन के कर्म स्वरूप में तथा अन्य दर्शनों के कर्म स्वरूप मानने में अन्तर है । जैनदर्शन में द्रव्यकर्म के बारे में माना है कि अपने चारों ओर जो कुछ भी हम अपने धर्म-चक्षुओं से देखते हैं, वह पुद्गल द्रव्य है । यह पुद्गल द्रव्य तेईस प्रकार की वर्गणाओं में विभाजित है और उन वर्गणाओं में एक कार्मणवर्गणा है, जो समस्त संसार में व्याप्त है। यह कार्मणवर्गणा ही जोव के भावों का निमित्त पाकर नर्म मप परिणत हो जाती है परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो | तं पविसदि कम्मरयं गाणावरणाविभावेहि । अर्थात्-जब रागद्वेष से युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामों में ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 491