________________
आचार्य जयन्त ने भी यही बात बताई है
जगतो यच्च वैचित्र्यं सुखदुःशावि भेदतः । कृषिसेवाविसाम्पेऽपि विलक्षणफलोदयः ॥ अफस्मानिधिलामश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् । कचित्फलमयत्नेऽपि स्नेऽप्यफलता पवचित् ।। तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणाद् त्यभिचारिणः । सेनादृष्टमुपेतव्यमस्य किचन कारणम् ।।
(न्यायमंजरी पृ. ४२--उत्तरभाग) अर्थात्---संसार में कोई सुखी है तो कोई दुःसी है । खेती, नौकरी बगैरह करने पर भी किसी को विशेष लाभ होता है और किसी को नुकसान उठाना पड़ता है । किसी को अकस्मात सम्पत्ति मिल जाती है और किसी पर बैठे-बिठाये बिजली गिर पड़ती है। किसी को बिना प्रयत्न कि हो त्र-प्राप्ति हो जाती है गौर गिली कोसा करने पर भी फल-प्राप्ति नहीं होती है। ये सब बातें किसी दृष्ट कारण की वजह से नहीं होती । अतः इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए | इसी तरह ईश्वरवादी भी प्रायः इस में एक मत हैं कि
करम प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करहि सो सस फल चाखा। कर्म का स्वरूप
उपर्युक्त प्रकार से कर्मसिद्धान्त के बारे में ईश्वरवादियों और अनीश्वरवादियों, आत्मवादियों और अनात्म वादियों में मतैक्य होने पर भी कम के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक मतभेद है।
लौकिक भाषा में तो साधारण तौर से जो कुछ किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं । जैसे खाना-पीना, चलना, फिरना, हेंसना, बोलना, सोचना, चित्रा रना इत्यादि । लेकिन कम का सिर्फ इतना ही अर्थ नहों