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प्रस्तुत कपन की तुलना श्रमण भगवान महावीर के जीवन के उस प्रसंग से की जा सकती है-जब भगवान समवसरण में स्फटिक सिंहासन पर बैठते हैं उनके प्रमुख शिष्य गौतमादि जो वर्ण से ब्राह्मण हैं, वे नीचे बैठकर उनकी उपासना करते हैं, ज्ञान का अलौकिक प्रकाश प्राप्त करते है ।२५
जिस प्रकार कल्पसूत्र में कहा है 'न ऐसा कभी हुआ है, न होता है और न होगा ही कि अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव अथवा वासुदेव अन्त-प्रान्त, सुच्छ, कृपण, भिक्षुक और ब्राह्मण कुलों मे जन्मे थे, जन्मे हैं और जन्मेगे । अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव उग्र. भोग, राजन्य, क्षत्रिय, हरिवंश कूल में या इसी प्रकार के उच्च कुल में जन्मे थे, जन्मे हैं और जन्मेगे । २६ इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तरा में भी कहा है-बोधि सत्व चाण्डाल कूल, वेणकार कुल, रथकार कुल, पुक्कस कुल जैसे होन कूलों में जन्म नहीं लेते। वे या तो ब्राह्मण कुल मे जन्म लेते है या क्षत्रिय कुल में। जब लोक ब्राह्मणप्रधान होता है तो ब्राह्मण कुल मे जन्म लेते है और जब क्षत्रिय-प्रधान होता है तब क्षत्रिय कूल में जन्म लेते हैं।२७
उपरोक्त चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि भारतीय सस्कृति मे क्षत्रिय का महत्त्व अधिक रहा है। जैन संस्कृति के सभी तीर्थ कर क्षत्रिय रहे है, वे आत्म-विद्या के पुरस्कत्ता एवं अहिंसा के प्रबल प्रचारक रहे हैं।
भगवान महावीर के जीवन की दिव्य एवं भव्य झाकी स्वयं सूत्रकार ने प्रस्तुत की है। अत. पाठकों से अनुरोध है कि वे उसका रसास्वादन मूल ग्रन्थ से ही करें। और विशेष जिज्ञासु लेखक का 'महावीर जीवन दर्शन' ग्रन्थ देखें।
श्रमण भगवान महावीर के सम्बन्ध में यह एक भ्रान्त धारणा चल रही है कि उन्होंने सवंतंत्र स्वतंत्र धर्म की संस्थापना की थी, वे एक नये धर्म के प्रवर्तक थे,' पर यह बात सही नही है, उन्होने किमो नये धर्म की सस्थापना नही की, पर जो पूर्व तीर्थ करो की लम्बी परम्परा चली आ रही थी वे उसके उन्नायक थे, सुधारक थे, प्रचारक थे और उद्धारक थे। आचाराग में स्वयं भगवान ने कहा-जो अहंत हो चके हैं, जो वर्तमान में है और आगे होगे उन सबका यही निरूपण है कि किसी भी जीव की हिंसा न करो।२८
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि देश-काल के अनुसार तीर्थ कर की शासन व्यवस्था में भेद भी होता है, पर सर्वथा ही भेद हो यह बात नहीं होती। भगवान् पाश्वं और महावीर की शासन व्यवस्था मे अनेक बातो में भेद रहा है, पर भेद मे भो अभेद अधिक था।
२५. आवश्यक नियुक्ति । २६. कल्पसूत्र २७ ललित विस्तरा पृ० २२ २८. आचारांग ११४१