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इंग्लिश में अनुवाद प्रकाशित किया है और उस पर महत्त्वपूर्ण भूमिका भी लिखी है । स्थानकवासी मुनि उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म० ने मक्षिप्त हिन्दी अनुवाद सहित कल्पसूत्र प्रकाशित किया है । सुत्ता गमे के द्वितीय भाग में मुनि पुफ्फभिक्खुजी ने भी मूल कल्पसूत्र छापा है। पूज्य पं० मुनि श्री घासी लालजी म. ने भी नवीन मौलिक कल्पमूत्र का निर्माण किया है। इस प्रकार कल्पसूत्र पर विशाल व्याख्या साहित्य समय-समय पर निर्मित हुआ है, जो उसकी लोकप्रियता का ज्वलंत प्रमाण है।
श्रमण भगवान महावीर
डाक्टर विटरनिट्स के अभिमतानुसार कल्पसूत्र तीन भागो में विभक्त है, जिनचरित्र, स्थविरावली और समाचारी।
जिनचरित्र में सर्वप्रथम श्रमण भगवान् महावीर को जीवन गाथा आयी है । भगवान् महादोर के गर्भ संक्रमण की घटना अत्यधिक विस्तार के साथ चित्रित की गई है। यह घटना बताती है कि श्रमण संस्कृति में ही क्या वैदिक संस्कृति मे भी क्षत्रियों को ही अध्यात्म-विद्या का गुरु माना है।
दीघनिकाय में महात्मा बुद्ध ने कहा-"वाशिष्ठ । ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही हैगोत्र लेकर चलने वाले जनो में क्षत्रिय श्रेष्ठ है । जो विद्या और आचारण से युक्त है, वह देव मानवों मे श्रेष्ठ है। वाशिष्ठ ! प्रस्तुत गाथा सनत्कुमार ने ठीक कही है, गलत नही । सार्थक कही है, निरर्थक नही, मैं भी इसका अनुमोदन करता हूँ।"१६
छान्दोग्योप िषद् में आरुणी के पुत्र श्वेतकेतु और प्रवाहण क्षत्रिय का मधुर संवाद है । संक्षेप मे सारांश यह है कि श्वेतकेतु सभा में जाता है । प्रवाहण उससे पाच प्रश्न करता है, किन्तु वह एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता । तथा वह अपने विद्या गुरु पिता के पास जाता है और प्रवाहण के प्रानो
नही जानता था । एतदर्थ वे राजा के पास गये और उनसे अपनी जिज्ञासा अभिव्यक्त की। तब राजा ने कहा-गौतम ! तुमने मुझसे कहा है, पूर्व-काल मे तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नही गई है । इसी से सम्पूर्ण लोको मे क्षत्रियो का ही (शिष्यो के प्रति) अनुशासन होता रहा है ।
तात्पर्य यह है कि क्षत्रियों की श्रेष्ठता रक्षात्मक शक्ति और आत्म-विद्या के कारण अत्यधिक मानी जाती थी।
वृहदारण्यक उपनिषद् में भी राजा प्रवाहण ने आरुणी से कहा-इसके पूर्व यह अध्यात्म विद्या किसी ब्राह्मण के पास नही रही, वह मैं तुम्हें बसलाऊंगा।
१६. दीघनिकाय ३।४, पृ० २४५ १७. यथेयं न प्राक् त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति तस्मादुः सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति
तस्यै हो वाच-छान्दोग्योपनिषद् । ५।३।१-७० पृ० ४७२-४७६ । १८. यथेयंविद्येतः पूर्व न कश्मिश्चन ब्राह्मग उवास ता त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि ।
--वृहदारण्यकोपनिषद् ६।।