Book Title: Kalpasutra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Amar Jain Agam Shodh Samsthan

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Page 17
________________ १६ नियुक्ति-पूर्णि कल्पसूत्र की सबसे प्राचीन व्याख्या नियुक्ति और चूर्णि है। नियुक्ति गाया रूप है और पूर्णि गद्य रूप है । दोनो की भाषा प्राकृत है । नियुक्ति के रचयिता द्वितीय भद्रबाहु हैं । चूर्णि के रचयिता के सम्बन्ध में अभी कोई निर्णय नहीं हो सका है। कल्पान्तa for नियुक्ति और कूणि के पश्चात् कल्पान्तवच्य प्राप्त होते है । ये व्याख्या ग्रन्थ नहीं हैं, अपितु वक्ता कल्पसूत्र का वाचन करते समय प्रवचन को रसप्रद बनाने के लिए अन्यान्य ग्रन्थों से जो नोट्स लेता था उन्हे ही कल्पान्तर्वाच्य की संज्ञा दी गयी है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि जितने कल्पान्त र्वाच्य प्राप्त होते है वे सभी एक को ही प्रतिलिपियां नहीं है, अपितु विविध लेखकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से उनको तैयार किये हैं। कुछ लेखक तपागच्छीय, कुछ खरतरगच्छीय और कुछ अंचलगच्छीय रहे हैं। क्योकि साम्प्रदायिक मान्यताओं के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है। एक कल्पान्तर्वाच्य को श्री सागरानन्द सूरि ने 'कल्प समर्थन' के नाम से प्रसिद्ध करवाया है । टीकाएँ - जैनाचार्यों ने संस्कृत वाङ् मय को अत्यधिक अभिवृद्धि देखकर आगमों पर भी संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखी। कहासूत्र को टीकाओं मे नियुक्ति और पूर्णि के प्रयोग के साथ ही अपनी ओर से लेखको ने उसमें बहुत कुछ नया संदर्भ मिलाया है। सन्देह विषौषधि कल्पपंजिका इस टीका के रचयिता 'जिनप्रभमूरि' है। बृहद्विपनिका के अभिमतानुसार टीका का रचना काल स ं० १३६४ है। श्लोक परिमाण २५०० के लगभग है। भाषा प्रौढ है, कही कही अनागमिक वर्णन भी आ गया है। १४ इन्होंने भगवान् महावीर के बटुकल्याणको की चर्चा भी की है। कल्प- किरणावली - इस टीका के निर्माता तपागच्छीय उपाध्याय श्री धर्मसागरजी हैं । विक्रम स० १६२८ मे इसका निर्माण हुआ है । श्लोक परिमाण ४८१४ है । इस टीका की परिसमाप्ति राधनपुर में हुई है । इतिवृत्त सम्बन्धी अनेक भूलें टीका मे दृष्टिगोचर होती हैं । इस पर सन्देहविषौषधी टीका का स्पष्ट प्रभाव भी परिलक्षित होता है । प्रदीपिका वृत्ति इसके टीकाकार पन्यास संघविजय है टीका का परिमार्जन उपाध्याय धनविजय जी ने १६८१ में किया था। श्लोक परिमाण ३२५० है टीका की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि लेखक खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से अलग-थलग रहा है । पूर्वं टीकाओ की तरह इस टीका में भी कुछ स्थलो पर त्रुटियाँ अवश्य हुई हैं । कल्पदीपिका इस टीका के लेखक पं० पन्यास जयविजयजी है और संशोधन कर्ता हैं भाव विजयगणी । स ं० १६७७ के कार्तिक शुक्ला सप्तमी को यह टीका समाप्त हुई है । लेखक ने प्रशस्ति मे अपने गुरु का नाम उपाध्याय विमल हर्ष दिया है। श्लोक परिमाण ३४३२ है, भाषा प्राज्जल है। १४. प्रबन्ध पारिजात -मुनि कल्याण विजय, प० १५०

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