Book Title: Jivandhar Charitra
Author(s): Kshatrachudamani
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 23
________________ शुं कारण छे ? ते बतावो. ७५. हे आत्मन् ! जो तुं पापनो हेतु जाणीने पण खोटी वातोनुं निवारण करवामां असमर्थ छे, तो ए समजवु के, ए तारां खोटां कामनी प्रभुताइ छे के जे तने खोटी वाताथी हठावीने सारां काममा प्रवृत थवा देती नथी. ७६. जे बुद्धि पोते जातेज अधम काममां होय छे अने यत्न करवाथी पण शुभ कार्यमा प्रवृत थती नथी तेनो हेतु पूर्व जन्मनां दुष्कर्म छे. अने ए हेतुथी आत्मा पण तेवांज काम करवा लागे छे. ७७. जो दररोज ए रीते विचार करवामां न आवे के हुं कोण छु ? मारामां केवा गुण छे ? हुं क्याथी आव्यो र्छ ? हुं हुं कई प्राप्त करी शकुं छु ? अने हुं कया निमित्तथी छु ? तो मनुष्यनी बुद्धि बे ठेकाणे थई जाय छे, अर्थात् अनुचित कार्योमां प्रवृत्त रहे छे. ७८. मोहनीय कर्म संपूर्ण कर्मोनो बनावनार अने धर्मनो शत्रु छ. ए कर्मथी मोह उत्पन्न थाय छे, जेथी के देहधारी मोहित थाय छे. ७९. हे आत्मा ! तुं शुं करवा लाग्यो हतो अने हवे तुं शुं करे छे ? बहु खेदनी वात छे के तुं पोतानां प्रारंभ करेलां कार्योंने छोडीने बाह्य शरीरादिकथी मोहने वश थाय छे. ८०. हे आत्मा ! आ इष्ट छे, के अनिष्ट छे, ए रीते वृथा संकल्प करीने तुं बाह्य पदार्थोमां केम मुग्ध थाय छ ? तारे पोताना अंतरंगने अर्थात् मनने पोताना वशमा राखवू जोइए. ८१. बहु खेदनी वात छे के, तारुं मन जे बन्ने लाकोनुं अनिष्ट करनार छे अने जेमां शान्त भाव नथी तेने तुं खराब

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