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गुरु छ अर्थात् बीजाना उपदेशादि बुद्धि स्फुरायमान थवामां मुख्य कारण नथी. ५५. ए विचारवं जोइए के जे पुरुष धनमां उन्मत्त छे, ते सन्मार्ग अथवा धर्मने सांभळतो नथी, जाणतो नथी, अते ते पर चालतो नथी; अने चाले पण छे, तो कार्यना अन्त सुधी चालतो नथी. ५६. गुरु आ रीते राजपुत्रने आशी दि आपीने अने तेने धीरज रखावीने पोते कोइने कोई रीते तप करवाने चाली गया; कारणके लोकमां प्राण नीकळती वखते कोई उपाय थई शकतो नथी. सारांश ए छे, के गुरुमहाराज कोई पण उपायथी रोकाया नहि अने तप करवाने चाल्या गया. ५७. त्यार पछी ते दिक्षा लईने तप करवा लाग्या अने तेना प्रभावथी नित्य आनन्द स्वरुप मोक्षने प्राप्त थई गया; कारणके विघ्न रहित कारणोथी कार्यनी सिद्धि थाय छेज. ५८.
गुरु देवना तपोवनमा चाल्या जवाथी जीवंधर कुमारने बहुज शोक थयो; मातापितामां अने गुरुमां फक्त गर्भाधान क्रियानीज न्यूनता होय छे. अन्य बधी वातोमां गुरु, माता पितानाज समान छे; तथा गुरुना चाल्या जवाथी जीवंधरने पोताना माता पिताना वियोग समानज शोक थयो. ५९. पछी तेणे तत्वज्ञानना जळथी शोकरुपी अग्नि बुझाव्यो; शुं ठंडीना जागृत थवाथी कदी आ ताप क्लेश के तडकानी पीडा थई शके छ ? कदापि नहि. सारांश ए के, तत्त्वनो विचार करवाथी तेनो शोक शान्त थई गयो. ६०. त्यार पछी जे समये ते पोतानी विद्याथी विद्वा