Book Title: Jivandhar Charitra
Author(s): Kshatrachudamani
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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१०९ आपीने जीवंधर महाराजने प्रतिबोधित करवा लागी; १६ – बुद्धिमानोने ए उचित नथी के, कोईने संन्यासिनी थतां रोके. आकाशथी जो रत्नोनी वर्षा थती होय, तो ते रोकाती नथी. १७. जे बुद्धिमान छे, ते अवस्थाना अंतमां पण अर्थात् वृद्ध थवा छतां पण दीक्षा लेवानी अपेक्षा करे छे - दीक्षा लेवानुं इच्छे छे; कारण के पंडितजन रत्नोना हारने भस्मने मांटे बाळता नथी; अर्थात् आ मनुष्य जन्मरुपी रत्नाना हारने संसार सुखरुप निस्सार भस्म माटे नष्ट करता नथी, तपज करे छे. १८. जीवंधर महाराजने पद्मा आर्जीकाए ज्यारे आ रीते प्रबोधित करी दीधा - समजावी दीधा, त्यारे ते नमस्कार करीने पोताना मातानी पासेथी नम्रतापूर्वक पाछा आव्या, अने पोताना राजमहलमां चाल्या गया. १९, बुद्धिमाने नां हृदय लांबा वखत सुधी विकार युक्त रहेतां नथी. मलिनता तो रत्नमां पण लागी जाय छे, परंतु तेनुं साफ थवं कंई कठण होतुं नथी. भाव ए छे के,- मातानी दीक्षाथी राजाना हृदयमां ने शोकनो विकार थयो हतो, ते तरतज दूर थई गयो - बहु वखत सुधी रह्यो नहि, जेम रत्नमां लागेलो डाघ सहजज साफ थई जाय छे तेम. २०.
त्यार पछी क्षत्रविद्याने जाणनार जीवंधर महाराजे देवताओ सरखां सुखोथी पृथ्वीने भोगवीने त्रीस वर्ष एक क्षण वारना समान व्यतीत करी दीधां; अर्थात् तेमणे त्रीस वर्ष राज्य

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