Book Title: Jivandhar Charitra
Author(s): Kshatrachudamani
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 125
________________ ११६ विघ्न वगर अभीष्ट स्थानपर पहोंची जाय छे. ५९. विकथादि पंदर प्रमादोने छोडीने, अने आत्मभावनामां लवलीन थईने बाह्य परिग्रहथी ममत्व छोडी दे. पछी गुप्ति वगेरे तो तारा हाथ परज राखी छे; अर्थात् ते तो सहजज पाळी शकाय छे. ६०. आ रीते सदा आत्माधीन थईने सुखथी प्राप्त थनार मुक्तिमार्गमां पोतानी बुद्धि लगाड. दुःखदायी बाह्य मार्गमां बुद्धि लगाववाथी शो लाभ थशे : ६१. हे आत्मा ! बाह्य पदार्थो साथै निस्सार संबंध जोडीने तुं मोह करे छे; तेथी तारा हृदयमां प्रत्यक्षज व्यथा उत्पन्न थाय छे, जे साक्षात् नरके लई जनार छे. ६२. ९. निर्जरानुप्रेक्षा. त्रणे रत्नोनी अर्थात् सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन अने सम्यकुचारित्रनी वृद्धिथी तारां पूर्व संचित कर्मोंनो पण नाश थई शके छे, कारण के कोई कारणथी उद्वीप्त थलो अनि शुं दाहा वस्तुमां कंई बाकी राखे छे : नहि. ६३. हे आत्मा ! तुं पूर्व कर्मोनो नाश करीने अने आगळ आवनार कर्मोने रोकीने तेरमा गुणस्थानवर्ती केवळी थई जा. ज्यारे तळावनुं बधुं पाणी नीकळी जाय छे, अने नवुं पाणी आववा पामतुं नथी, त्यारे मां पाणी क्यां रही शके छे ! ६४. हे आत्मा ! पछी तुं ए त्रणे रत्नोने सुगमताथी पूर्ण करी शके छे, कारण के मोहना क्षोभथी रहित थई जवाथी परिणाम निर्मळ थई जाय छे. भावार्थ ए छे के, तेरमा गुणस्थानथी चौदमा गुणस्थानमां जवं

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