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७० म्हों फेरव्यु, कारण के साधु पुरुषोना मनमा जे दया उत्पन्ना थाय छे ते सर्वथा दोष रहित होय छे. ३४. परंतु ए स्त्री ते श्रेष्ठ खभावाळा पराक्रमी पुरुषने जोईने तेनी साथे विषयभोगनी इच्छा करवा लागी-कामवती थई गई, कारण के स्त्रीओनी रुचि अप्राप्त पुरुषमांज थाय छे, प्राप्तमां कदी नहि; अर्थात् स्त्रीओ घरना पतिने छोडीने नवा पुरुषनेज इच्छे छे. ३५. ते वखते मनना अभिप्रायने मारनार कुमारे तेने पुरुषाभिलाषीणी समझीने विरक्तभाव प्रगट कर्यो, कारण के जे वस्तु मुल्ने अनुराग के प्रीति करावनार होय छे, ते वशी अर्थात् जीतेंद्रिय पुरुषोने वैराग्यनुं कारण होय छे. ३६. “ जो शरीर आत्माथी जुदु बनावबामां आवे तो, तेमां फक्त चामडी, मांस मळ, हाडकां वगेरेज रही जाय, तोपण अज्ञानी जीव आ घृणित ( चीतरी चढे तेवू ) मांसमळादिना ढगला पर मोहित थई जाय छे, ए बहु खेदनी वात छे. ३७. विवेचन करवाथी अर्थात् सारी रीते विचारपूर्वक निरीक्षण करवाथी तो आ शरीरमां दुर्गंध, मळ, मांसादिक सिवाय बर्जुि कंइ देखातुं नथी, पछी तेमां जीव कोण जाणे केम मोह करे छे, तेनुं शुं कारण छे ? ३८ तेने अज्ञान स्वरुप, तर्क शून्य अने अपवित्रता- बीज अर्थात् मळमूत्रथी भरेलुं समझीने पण जे आत्मा तेमा स्पृहा करे छे-तेने इच्छे छे, ते मानो पोते कहे छे के, हुं कर्मोने आधीन छु; अर्थात् जीव कर्मोना वशमां रहीनेज अपवित्र शरीरमां राग करे छे. कर्मनी परवशता होत नहि, तो