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गुरु क्रोधनी वखते तेनी पराधीनता जोईने पछी तेने आ रीते शिखामण आपी, कारण के गुरुनी वाणी कुमार्ग अथवा अधर्मनो नाश करनार अने सुमार्ग अथवा धर्ममां प्रवृत्त करनार होय छे. ४०. " हे श्रेष्ठ पुत्र ! तुं मोहने वश थइने आटलो क्रोधी केम थयो ? विकारनुं कारण होवा छतां पण विकार उत्पन्न थाय नहि, तेनुं नाम धीरता छे. ४१. जो तुं पोतानुं भुं करनार पर क्रोध करे छे, तो तुं क्रोध के कोपपरज क्रोध केम करतो नथी ? कारण के क्रोध, धर्म अर्थ काम मोक्ष अने जीवननों पण नाश करनार छे. तेना समान भुंडुं करनार बीजुं कोण छे ? ४२. क्रोधरुपी अग्नि पोते पोतानेज अर्थात् क्रोधीनेज भस्म करे छे, बीजी कोई वस्तुने भस्म करतो नथी. तेथी जे पुरुष कोई बीजाने भस्म करवानी इच्छाथी क्रोध करे छे, ते पोतानाज शरीरपर अग्नि नांखे छे. ४३. जो उत्कृष्ट अने निकृष्ट अथवा भलाई बुराईनुं ज्ञान न होय, तो शास्त्रमां परिश्रम करवो निष्फळ छे. जे डांगर (भात) ना दाणामां चोखा नथी, ते कापवाने परिश्रम करवाथी शो लाभ ? ४४. जे लोक तत्त्वज्ञान के शास्त्रविरुद्ध आचरण करे छे, तेने माटे तत्वार्थनुं जाणवुं व्यर्थ अने निष्फळ छे. जे मनुष्य दीवो हाथमां होवा छतां कुवामां पडे छे, तेने दीवाथी शो लाभ : ४५. तेथी तारे तत्वज्ञानने अनुकूल आ रीते आचरण कर जोईए के, मोहादिक चोरोथी बुद्धिरुपी धन चोराई जाय नहि, अर्थात् विचारीने