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अभिप्रायने समजी गयो. ठीकज छे, के शिष्यपणुं अने गुरुपणुं एवुज छे, अर्थात् गुरु शिष्यनी वर्तणुक एवीज होय छे. २८. ते गुरुनी शुद्धि अर्थात् विशुद्धताने जाणीने तेपर तेथी पण अधिक प्रीति करवा लाग्या, कारण के प्राप्त करेल मणिनी शुद्धि जोईने अधिक हर्ष थाय छे. २९. ___ गुरु एवा होवा जोईए के जे त्रणे रत्न अर्थात् सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन अने सम्यक्चारित्रथी युक्त होय, पात्र अने योग्य पुरुषोमां स्नेह राखनार होय, परोपकारी होय, धर्मनुं पालण करनार होय अने भवसागरथी पार उतारनार अर्थात् जन्म मरणना दुःखथी मोक्ष प्राप्त करावनार होय. ३०. शिष्य एवा होवा जोईए के जे गुरुनी सेवा करनार, संसारना आवागमनथी तरनार, नम्र, धार्मिक, सारी बुद्धिवाळा, शान्त स्वभावी, आळस विनाना अने शिष्ट अर्थात् शिक्षा ग्रहण करनार होय. ३१. ज्यारे गुरु प्रत्येनी भक्तिथी मुक्ति प्राप्त थाय छे, त्यारे ते द्वारा बीजी हलकी वस्तुओ शुं प्राप्त थई शकती नथी ? अवश्य थाय छे. शुं तुष अर्थात् भूसुं ( अनाजनां छोडां) त्रिलोकी मूल्यवाळा रत्नना बदलामां पण मळी शकतुं नथी ? अर्थात् जरुर मळी शके छे. गुरुभक्ति त्रिलोकीमूल्य रत्ननी समान छे. ३२. जे गुरुनो द्रोह करनार, कृतघ्न छ, अर्थात् उपकारना वदलामां अपकार करे छे, तेना बधा गुण नाश पामे छे, अने तेनी विद्या विजळीनी माफक क्षणभंगुर होय छे.