Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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10 जनवरी 2011 जिनवाणी
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जीवन-निर्माण में गुरु
की भूमिका
श्री पी. शिखरमल सुराणा
एक सद्गुरु किस प्रकार जीवन-निर्माण में सहायक होता है, इसका प्रयोगात्मक रूप सहस्रों श्रावकों ने अनुभव किया होगा, किन्तु हमारे निवेदन पर सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के अध्यक्ष श्री शिखरमल जी सुराणा ने एक प्रेरक आलेख प्रेषित किया है। गुरु की जीवन-निर्माण hi भूमिका होती है, इसकी एक दृष्टि प्रस्तुत आलेख से प्राप्त हो सकेगी। -सम्पादक
(1) मेरे पिता श्री पारसमल जी सुराणा अपने गुरु प्रातः स्मरणीय, इतिहास मार्तण्ड, अध्यात्मयोगी आचार्य प्रवर श्री हस्तीमल जी महाराज के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा भक्ति रखते थे । उन्होंने स्कूली शिक्षा नहीं पाई । वे हिन्दी पढ़ लेते थे, लेकिन बोलचाल में राजस्थानी (मारवाड़ी) भाषा का ही प्रयोग करते थे। (2) जब मैं दो वर्ष का शिशु था, तब एक घटना घटी। आचार्य श्री हस्तीमल जी म. सा. एक वाक्य ने मेरे पिताजी और मेरे जीवन का निर्माण कर दिया। 'नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं' में पृष्ठ 600 पर “नवो जुनो मत करीजै” शीर्षक से संक्षिप्त में यह घटना प्रकाशित है। उसे यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ :
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“श्री पारसमल जी सुराणा नागौरवाले गुरुदेव के दर्शनार्थ जोधपुर पधारे हुए थे। अचानक घर से तर आया कि माँ बीमार है, जल्दी आओ । तार पढ़कर सुराणा सा बेचैन हो गये व आचार्यश्री की सेवा में मांगलिक लेने उपस्थित हुए और सारा वृत्तांत गुरुदेव को बताया। गुरुदेव ने सारी बात सुनकर मुस्कुराते हुए मांगलिक फरमा दी और जाते-जाते कहा कि कोई नवो जुनो मत करीजै ।
रास्ते भर पारसमल जी इसी उधेड़बुन में लगे रहे कि "कोई नवो जुनो मत करीजै" का क्या तात्पर्य हो सकता है। कुछ समझ में नहीं आया। घर आकर देखा तो माँ तो स्वस्थ, किन्तु पत्नी अस्वस्थ थी। स्मरण रहे कि पुराने जमाने में पत्नी के बीमार होने पर बेटे को बुलाना होता तो पत्नी की बीमारी नहीं लिखकर माँ की बीमारी लिखी जाती थी ।
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श्री पारसमल जी ने पत्नी की सार-संभाल की और दो-चार दिन बाद ही पत्नी का देहान्त हो गया। शोक बैठक का आयोजन किया गया। आठवें नवें दिन ही बीकानेर से कोई सज्जन अपनी लड़की का रिश्ता लेकर आया, तब उन्हें आचार्यश्री द्वारा कही बात का गूढ़ार्थ समझ में आया। उन्होंने मन ही मन आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का निर्णय ले लिया । "
(3) उस समय पिताजी 30 वर्ष के थे। कितने ही रिश्ते आये तथा परिजनों का कितना ही जोर रहा, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। अपने गुरु के वचन को पत्थर की लकीर मानकर वापस शादी नहीं की।
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